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________________ के हैं उनमें 'यह प्रकृति है' इस प्रकार जो अभेद रूप में स्थापना की जाती है उसका नाम स्थापना प्रकृति है ( १० ) । द्रव्यप्रकृति आगम और नोआगम के भेद से दो प्रकार की है। इनमें आगम द्रव्यप्रकृति के ये नौ अर्थाधिकार हैं—स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम । इन आगमविशेषों को विषय करने वाले ये आठ उपयोगविशेष हैंवाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति और धर्मकथा । इन उपयोगों से रहित (अनुपयुक्त) पुरुष द्रव्यरूप होते हैं । इसका यह अभिप्राय हुआ कि जो जीव प्रकृतिप्राभृत के ज्ञाता होकर भी तद्विषयक उपयोग से रहित होते हैं उन सबको आगमद्रव्य प्रकृति जानना चाहिए (११-१४) । नोआगम द्रव्यप्रकृति कर्मप्रकृति और नोकर्मप्रकृति के भेद से दो प्रकार की है। इनमें प्रकृति को स्थगित कर प्रथमतः नोआगम प्रकृति का विचार करते हुए उसे अनेक प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है । यथा - अनेक प्रकार के पात्रों रूप जो घट, पिढर, सराव, अरंजन व उलुंचन आदि हैं उनकी प्रकृति मिट्ट है तथा धान व तर्पण आदि की प्रकृति जौ व गेहूँ है । इस सबको नोआगमद्रव्य प्रकृति कहा जाता है (१५-१८ ) । ' जिस कर्म प्रकृति को पूर्व में स्थगित किया गया है उसकी अब प्ररूपणा करते हुए उसके ये आठ भेद निर्दिष्ट किये गए हैं -- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनमें ज्ञानावरणीय की आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय आदि पाँच प्रकृतियाँ निर्दिष्ट की गई हैं । इनमें आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के चार, चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस भेदों का निर्देश करते हुए उनमें उसके ये चार भेद कहे गये हैं— अवग्रहावरणीय, हावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय । इनमें अवग्रहावरणीय अर्थावग्रहावरणीय और व्यंजनावग्रहावरणीय के भेद से दो प्रकार का है । इनमें व्यंजनावग्रहावरणीय श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के भेद से चार प्रकार का है । अर्थावग्रहावरणीय पाँच इन्द्रियों और नोइन्द्रिय के निमित्त से छह प्रकार का है । इसी प्रकार से आगे ईहावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय इनमें भी प्रत्येक के इन्द्रिय और नोइन्द्रिय के आश्रय से वे ही छह-छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । इस प्रकार से अन्त में उस आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के चार, चौबीस, अट्ठाईस, बत्तीस, अड़तालीस, एक सौ चवालीस, एक सौ अड़सठ, एक सौ बानबै, दो सौ अठासी, तीन सौ छत्तीस और तीन सौ चौरासी भेद ज्ञातव्य कहे गये हैं (१६-३५) । इन भेदों का कुछ स्पष्टीकरण यहाँ किया जाता है-आभिनिबोधिक ज्ञानावरणीय के मूल में व्यंजनावग्रहावरणीय और अर्थावग्रहावरणीय ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । इनमें क्रमशः उनसे आव्रियमाण व्यंजनावग्रह चक्षुइन्द्रिय व मन को छोड़ शेष चार इन्द्रियों के आश्रय से चार प्रकार का तथा अर्थावग्रह पाँचों इन्द्रियों और मन के आश्रय से छह प्रकार का है । इसी प्रकार ईहा आदि तीन भी पृथक्-पृथक् छह-छह प्रकार के हैं । इस प्रकार व्यंजनावग्रह के ४ और अर्थावग्रह के २४ (४६) भेद हुए। दोनों के मिलकर २८ (४ + २४) भेद होते हैं। इन २८ उत्तर भेदों में अवग्रह आदि ४ मूल भेदों के मिलाने पर ३२ भेद होते हैं । इस प्रकार ४, २४, २८ और ३२ को पाँच इन्द्रिय व मन इन छह से २४; २४X६ - - १४४, २८६ = १६८, ३२x६ == १६२ गुणित करने पर ४X६= भेद होते हैं । उक्त अवग्रह ११० / षट्खण्डागम- परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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