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________________ समयप्रबद्धार्थता के आश्रय से आयुकर्म की प्रकृतियां सबसे स्तोक, गोत्र की असंख्यातगुणी, वेदनीय की विशेष अधिक, अन्तराय की संख्यातगुणी, मोहनीय की संख्यातगुणी, नामकर्म की असंख्यातगुणी, दर्शनावरणीय की असंख्यातगुणी और उनसे ज्ञानावरणीय की प्रकृतियाँ विशेष अधिक कही गई हैं (११-१८)। क्षेत्र-प्रत्यास के आश्रय से अन्तराय की प्रकृतियां सबसे स्तोक, मोहनीय की संख्यातगुणी, आयु की असंख्यातगुणी, गोत्र की असंख्यातगुणी, वेदनीय की विशेष अधिक, नामकर्म की असंख्यातगणी, दर्शनावरणीय की असंख्यातगुणी और ज्ञानावरणीय की प्रकृतियां उनसे विशेष अधिक कही गई हैं (१६-२६) । यहाँ सब सूत्र २६ हैं। इस प्रकार इस वेदना अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार के समाप्त होने पर चतुर्थ वेदनाखण्ड समाप्त हुआ है । पूर्वोक्त वेदनाभावविधान आदि अल्पबहुत्व पर्यन्त दस (७-१६) अनुयोगद्वार १२वीं जिल्द में प्रकाशित हुए हैं। पंचम खण्ड : वर्गणा इस खण्ड में स्पर्श, कर्म व प्रकृति इन तीन अनुयोगद्वारों के साथ बन्धन अनुयोगद्वार के अन्तर्गत बन्ध, बन्धक, बन्धनीय व बन्धविधान इन चार अधिकारों में बन्ध और बन्धनीय ये दो अधिकार समाविष्ट हैं। इनमें यहाँ बन्धनीय-वर्गणाओं-की प्ररूपणा के विस्तृत होने से इस खण्ड का नाम 'वर्गणा' प्रसिद्ध हुआ है। १. स्पर्श इसमें ये १६ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य कहे गये हैं-स्पर्शनिक्षेप, स्पर्शनय- विभाषणता, स्पर्शनामविधान, स्पर्शद्रव्यविधान, स्पर्शक्षेत्र विधान, स्पर्शकालविधान, स्पर्श-भावविधान, स्पर्शप्रत्ययविधान, स्पर्शस्वामित्वविधान, स्पर्शस्पर्शविधान, स्पर्शगतिविधान, स्पर्शअनन्तरविधान, स्पर्शसंनिकर्षविधान, स्पर्शपरिमाणविधान, स्पर्शभागाभागविधान और स्पर्शअल्पबहुत्व (सूत्र १-२)। ये अनुयोगद्वार नाम से वे ही हैं, जिनका उल्लेख वेदना अनुयोगद्वार के प्रारम्भ (सूत्र ४,२,१,१) में किया गया है, पर प्रतिपाद्य विषय भिन्न है । वेदना अनुयोगद्वार में जहाँ उनके आश्रय से वेदना की प्ररूपणा की गई है वहाँ इस अनुयोगद्वार में उनके आश्रय से स्पर्श की प्ररूपणा की गई है। इसी से उन सबके आदि में वहाँ 'वेदना' शब्द रहा है-जैसे वेदनानिक्षेप व वेदनानयविभाषणता आदि, और यहाँ 'स्पर्श' शब्द योजित किया गया है-जैसे स्पर्शनिक्षेप व स्पर्शनयविभाषणता आदि। यही प्रक्रिया आगे कर्मअनुयोगद्वार (५,४,२) में भी अपनाई गई है। १. स्पर्शनिक्षेप-उक्त १६ अनुयोगद्वारों में प्रथम स्पर्शनिक्षेप है । इसमें यहाँ स्पर्श के इन १३ भेदों का निर्देश किया गया है--नामस्पर्श, स्थापनास्पर्श, द्रव्यस्पर्श, एकक्षेत्रस्पर्श, अनन्तर क्षेत्र स्पर्श, देशस्पर्श, त्वक्स्पर्श, सर्वस्पर्श, स्पर्शस्पर्श, कर्मस्पर्श, बन्धस्पर्श, भव्यस्पर्श और भावस्पर्श (३-४)। २. स्पर्शनयविभाषणता-- यहाँ अधिकार प्राप्त उपर्युक्त तेरह प्रकार के स्पर्श के स्वरूप मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | १०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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