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________________ अप्रमत्तसंयत ने उसके उत्कृष्ट अनुनाग को बाँधा है वह भी आयु की उत्कृष्ट भाववेदना का स्वामी होता है। इससे भिन्न उसकी अनुत्कृष्ट वेदना होती है (१७-२०)। भाव की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की जघन्य वेदना अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ क्षपक के होती है । इससे भिन्न उसकी जघन्य भाववेदना निर्दिष्ट की गई है । दर्शनावरणीय और अन्तराय इन दो कर्मों की भी भाव की अपेक्षा जघन्य-अजघन्य वेदनाओं की प्ररूपणा ज्ञानावरणीय के ही समान है (२१-२४)। इसी प्रकार से आगे वेदनीय आदि शेष कर्मों की भाव की अपेक्षा जघन्य-अजघन्य वेदनाओं की प्ररूपणा की गई है (२५-३६)। इस प्रकार स्वामित्व अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है। अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में जघन्य पदविषयक, उत्कृष्ट पदविषयक और जघन्य-उत्कृष्ट पदविषयक इन तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से भाववेदना सम्बन्धी अल्पबहुत्व की प्ररूपणा करते हुए प्रथमतः ज्ञानावरणीय आदि मूल प्रकृतियों की भाववेदना के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। यथा__ मोहनीयवेदना भाव की अपेक्षा जघन्य सबसे स्तोक है, अन्तरायवेदना भाव से जघन्य उससे अनन्तगुणी है , ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय वेदनाएँ भाव की अपेक्षा जघन्य परस्पर समान होती हुई अन्तरायवेदना से अनन्तगुणी हैं, आयुवेदना भाव से जघन्य अनन्तगुणी है, इत्यादि (४०-६४)। आगे यहाँ तीन गाथासूत्रों के द्वारा उत्तर प्रकृतियों के आश्रय से उत्कृष्ट अनुभागविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा संक्षेप में की गई है। इसके अनन्तर 'यहाँ चौसठ पदवाला उत्कृष्ट महादण्डक किया जाता है' इस सूचना के साथ आगे उन तीन गाथाओं द्वारा संक्षेप में निर्दिष्ट उसी अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण गद्यात्मक सूत्रों द्वारा पुनः विस्तार से किया गया है । यथा__ लोभसंज्वलन सबसे मन्द अनुभागवाला है। मायासंज्वलन उससे अनन्तगुणा है। मानसंज्वलन उससे अनन्तगुणा है। क्रोधसंज्वलन उससे अनन्तगुणा है। मनःपर्ययज्ञानावरणीय और दानान्त राय ये दोनों परस्पर तुल्य होकर उस क्रोधसंज्वलन से अनन्तगुणे हैं, इत्यादि । ___ इन गद्यात्मक सूत्रों को धवलाकार ने उन गाथासूत्रों के गूढ़ अर्थ को स्पष्ट करनेवाले चूर्णिसूत्र कहा है । आगे अन्य तीन गाथासूत्रों द्वारा उत्तरप्रकृतियों के आश्रय से जघन्य अनुभागविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। ठीक इसके पश्चात् 'यहाँ चौंसठ पदवाला जघन्य महादण्डक किया जाता है' इस सूचना के साथ आगे उन गाथासूत्रों द्वारा निर्दिष्ट उसी संक्षिप्त अल्पबहुत्व का स्पष्टीकरण पुनः १. धवला पु० १२, १०४०-४४ २. वही, पृ० ४४-५६, सूत्र ६५-११७ ३. वही, पु० १२, पृ० ४१,४२-४३ व ४३ ४. वही, पु० १२, पृ० ६२-६४ मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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