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________________ के असंख्यातवें भाग से हीन कर्म स्थितिकाल पर्यन्त सूक्ष्मनिगोद जीवों में रहा है, वहाँ परिभ्रमण करते हुए जिसके अपर्याप्त भव बहु त व पर्याप्त भव थोड़े रहते हैं, इत्यादि क्रम से जो यहाँ जघन्य ज्ञानावरणीय द्रव्यवेदना के स्वामी के लक्षण प्रकट किए गये हैं (४८-५६) वे प्रायः सभी पूर्वोक्त उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय द्रव्यवेदना के स्वामी के लक्षणों से भिन्न हैं । इसी प्रसंग में आगे कहा गया है कि इस प्रकार से परिभ्रमण करके जो बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त जीवों में उत्पन्न हुआ है, अन्तर्मुहूर्त में सर्वलघु काल से सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ है, अन्तर्मुहूर्त में काल को प्राप्त होकर जो पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है, सर्वलघुकाल (सात मास) में योनिनिष्क्रमण रूप जन्म से जो आठ वर्ष का होकर संयम को प्राप्त हुआ है, वहाँ कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण भवस्थिति तक संयम का पालन कर जीवित के थोड़ा शेष रहने पर जो मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ है, इस मिथ्यात्व से सम्बद्ध सबसे अल्प असंयमकाल में रहा है, इत्यादि क्रम से यहाँ अन्य भी कुछ विशेषताओं को प्रकट करते हुए (५६-७०) आगे कहा गया है कि इस प्रकार नाना भव-ग्रहणों से आठ संयम-काण्डकों का पालन करके, चार बार कषायों को उपशमाकर, पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र संयमासंयम और सम्यक्त्वकाण्डकों का पालन करके जो इस प्रकार से परिभ्रमण करता हुआ अन्तिम भवग्रहण में फिर से भी पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है, वहाँ सर्वलघु कालवाले योनिनिष्क्रमण रूप जन्म से आठ वर्ष का होकर जो संयम को प्राप्त हुआ है, कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण काल तक संयम का पालन कर जीवित के थोड़ा शेष रह जाने पर जो क्षपणा में उद्यत हुआ है। इस प्रकार जो अन्तिम समयवर्ती छद्मस्थ (क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती) हुआ है उसके ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्य की अपेक्षा जघन्य होती है (७१-७५)। ___ अभिप्राय यह है कि द्रव्य से जघन्य ज्ञानावरणीय वेदना क्षपितकौशिक जीव के होती है। इन सूत्रों में उसी क्षपितकौशिक के लक्षणों को प्रकट किया गया है। ये सब लक्षण ऐसे हैं जिनके आश्रय से ज्ञानावरणीय रूप कर्म पुद्गलस्कन्धों का संचय उत्तरोत्तर हीन होता गया है। धवला में इसका स्पष्टीकरण विस्तार से किया गया है । आगे इस जघन्य ज्ञानावरणीय द्रव्यवेदना से भिन्न अजघन्य ज्ञानावरणीय द्रव्यवेदना है, यह सूचना कर दी गई है (७६) । इसका स्पष्टीकरण धवला में विस्तार से किया गया है।' आगे दर्शनावरणीय, मोहनीय, और अन्तराय इन तीन कर्मों की जघन्य द्रव्यवेदना के सम्बन्ध में यह सूचना कर दी गई है कि जिस प्रकार जघन्य ज्ञानावरणीय द्रव्यवेदना के स्वामी की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार से इन तीन जघन्य कर्मद्रव्यवेदनाओं की प्ररूपणा करना चाहिए। विशेष इतना है कि मोहनीयकर्म की क्षपणा में उद्यत जीव अन्तिम समयवर्ती सकषायी (सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत) होता है तब उसके मोहनीय वेदना द्रव्य से जघन्य होती है (७७)। इस जघन्य द्रव्यवेदना से भिन्न उन तीनों कर्मों की अजघन्य द्रव्यवेदना है (७८) । अनन्तर द्रव्य से जघन्य वेदनीयवेदना के स्वामी की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि जो जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन कर्म स्थितिकाल तक सूक्ष्म निगोद जीवों में १. धवला पु० १०, पृ० २६६-३१२ ८२ / षट्खण्डागम-परिशील Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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