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________________ भिन्नता सिद्ध होती है। इस विषय में धवलाकार द्वारा जो अनेक शंका-समाधानपूर्वक स्पष्टीकरण किया गया है उसका उल्लेख आगे के प्रसंग में किया जाएगा। महादण्डक चूलिका उक्त अल्पबहुत्व की प्ररूपणा के अनन्तर सूत्रकार ने “आगे सब जीवों में महादण्डक करने योग्य है" ऐसा निर्देश करते हुए समस्त जीवों में मार्गणाक्रम से रहित उस. अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की है। इसे धवलाकार ने चूलिका कहा है। यथा मनुष्य पर्याप्त गर्भोपक्रान्तिक सबसे स्तोक हैं, मनुष्यणी उनसे संख्यातगुणी हैं, सर्वार्थसिद्धिविमानवासी देव उनसे संख्यातगुणे हैं, बादर तेजस्कायिक पर्याप्त उनसे असंख्यातगुणे हैं, इत्यादि । यहाँ सब सूत्र ७६ हैं। ___ इस प्रकार सूत्रकार द्वारा निर्दिष्ट 'एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व' आदि उन ग्यारह अनुयोगद्वारों में पूर्वप्ररूपित बन्धकसत्त्वप्ररूपणा और इस महादण्डक को सम्मिलित करने पर १३ अधिकार होते हैं । इस प्रकार यह क्षुद्रकबन्ध खण्ड उपर्युक्त १३ अधिकारों में समाप्त हुआ है । इसमें समस्त सूत्रसंख्या ४३ + ६१+२१६-१५१+२३ -१७१-१२४+२७४+५५ +६८+८८+ २०६+७६.-१५८६ है । यह दूसरा खण्ड एक ही ७वीं जिल्द में प्रकाशित हुआ है। तृतीय खण्ड : बन्ध-स्वामित्वविचय यह प्रस्तुत षट्खण्डागम का तीसरा खण्ड है। इसमें समस्त सूत्र ३२४ हैं। जैसा कि इस खण्ड का नाम है, तदनुसार उसमें बन्धक के स्वामियों का विचार किया गया है। सर्वप्रथम यहाँ वह बन्धस्वामित्वविचय की प्ररूपणा ओघ और आदेश के भेद से दो प्रकार की है, ऐसी सूचना की गई है । तत्पश्चात् ओघ से की जानेवाली उस बन्धस्वामित्वविषयक प्ररूपणा में ये चौदह जीवसमास (गुणस्थान) ज्ञातव्य हैं, ऐसा कहते हुए आगे उन चौदह गुणस्थानों का नाम निर्देश किया गया है। तदनन्तर इन चौदह जीवसमासों के आश्रय से प्रकृतियों के बन्धव्युच्छेद (बन्धव्युच्छित्ति) की प्ररूपणा की जाती है, ऐसी प्रतिज्ञा की गई है (सूत्र १-४)। ओघप्ररूपणा कृत प्रतिज्ञा के अनुसार आगे ओघ की अपेक्षा उस बन्धव्युच्छित्ति की प्ररूपणा करते हुए ज्ञानावरणीय आदि के क्रम से उनके साथ विवक्षित गुणस्थान में बन्ध से व्युच्छिन्न होनेवाली अन्य कर्म प्रकृतियों को भी यथाक्रम से सम्मिलित करके प्रश्नोत्तरपूर्वक उन बन्धक-अबन्धकों की प्ररूपणा की गई है। जैसे-- पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यश:कीर्ति, उच्चगोत्र और पाँच अन्तराय इन १. देखिए धवला पु० ७, पृ० ५३६-४१ २. खुद्दाबंधस्स एक्कारसअणियोगद्दारणिबद्धस्स चूलियं काऊण महादंडओ वुच्चदे।- धवला पु० ७, पृ० ५७५ मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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