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________________ ३ धर्मामृत ( अनगार) इन्द्रपदानन्तरभावि चक्रिपदमपि पुण्यविशेषादेवासाद्यत इत्याहउच्चैर्गोत्रमभिप्रकाश्य शुभकृद्दिक्चक्रवालं करै राक्रामन् कमलाभिनन्दिभिरनुनथ्नन् रथाङ्गोत्सवम् । दूरोत्सारितराजमण्डलरुचिः सेव्यो मरुत्खेचरै रासिन्धोस्तनुते प्रतापमतुलं पुण्यानुगुण्यादिनः ॥४१॥ उच्चैौत्रं-इक्ष्वाक्वादिवंशविशेष कुलाद्रिं च । अभि-निर्भयं समन्ताद्वा । शुभकृत्-शुभं कृन्तन्ति छिन्दन्ति शुभकृतः प्रतिपक्षभूपास्तदुपलक्षितं दिक्चक्रं, पक्षे प्रजानां क्षेमंकरः । करैः-सिद्धायैः किरणश्च । कमला-लक्ष्मी, कमलानि च पद्मानि । अनुग्रथ्नन्–दीर्घाकुर्वन् । रथाङ्गोत्सवं-चक्ररत्नस्योद्धर्षं चक्रवाक्९ प्रीति च । राजमण्डलं-नृपगणं चन्द्रबिम्बं च। मरुत्खेचरैः-देवविद्याधरैर्योतिष्कदेवग्रहश्च । इनःस्वामी सूर्यश्च ॥४१॥ अथार्द्धचक्रिपदमपि सनिदानधर्मानुभावादेव भवतीत्याहछित्वा रणे शत्रुशिरस्तदस्तचक्रेण दृप्यन् धरणी त्रिखण्डाम् । बलानुगो भोगवशो भुनक्ति कृष्णो वृषस्यैव विजृम्भितेन ॥४२॥ शत्रु:-प्रतिवासुदेवः । त्रिखण्डां-विजयार्धादर्वाग्भाविनीम् । बलानुगः-बलभद्रं पराक्रमं चानुगच्छन् । भोगवशः-स्रग्वनितादि-विषयतन्त्रः। भोगं वा नागशरीरं वष्टि कामयते नागशय्याशायित्वात । विजृम्भितेन-दुःखावसानसुखावसायिनानुभावेन, तस्य मिथ्यात्वानुभावेन नरकान्तफलत्वात् ॥४२॥ अपना प्रभाव फैलाता है। तथा चिरकाल तक शची आदि देवियोंके साथ विलास करते हुए स्वर्गमें जो राज्यसुख भोगता है वह सब सम्यक् तपश्चरणमें अनुरागसे उत्पन्न हुए पुण्यका ही उपकार है ॥४०॥ आगे कहते हैं कि इन्द्रपदके पश्चात् चक्रीका पद भी पुण्य विशेषसे ही प्राप्त होता है जैसे सूर्य उच्चगोत्र-निषधाचलको प्रकाशित करके कमलोंको आनन्दित करनेवाली • किरणोंके द्वारा दिशामण्डलको व्याप्त करके प्रजाका कल्याण करता है, और चकवेको चकवीसे मिलाकर उन्हें आनन्द देता है, चन्द्रमण्डलकी कान्तिको समाप्त कर देता है ज्योतिष्क ग्रहोंसे सेवनीय होता है और समुद्र पर्यन्त अपने अतुल प्रतापको फैलाता है। वैसे ही पूर्वकृत पुण्यके योगसे चक्रवर्ती भी अपने जन्मसे उच्चकुलको प्रकाशित करके लक्ष्मीको बढ़ानेवाले करोंके द्वारा प्रतिपक्षी राजाओंसे युक्त दिशामण्डलको आक्रान्त करके चक्ररत्नका उत्सव मनाता है, राजागणोंके प्रतापको नष्ट कर देता है, देव और विद्याधर उसकी सेवा करते हैं तथा वह अपने अनुपम प्रतापको समुद्रसे लेकर हिमाचल तक फैलाता है ॥४१॥ आगे कहते हैं कि अर्धचक्रीपद भी निदान पूर्वक किये गये धर्मके प्रभावसे ही प्राप्त होता है अपने शत्रु प्रतिनारायणके द्वारा युद्ध में चलाये गये चक्रके द्वारा उसीका मस्तक काटकर गर्वित हुआ विषयासक्त कृष्ण बलदेवके साथ तीन खण्ड पृथ्वीको भोगता है यह उसके पूर्वजन्ममें निदानपूर्वक तपके द्वारा संचित पुण्यका ही विरुद्ध विलास है ॥४२॥ विशेषार्थ--चक्रवर्तीके तो घरमें चक्ररत्न उत्पन्न होता है किन्तु अर्धचक्री नारायणके प्रतिद्वन्दी प्रतिनारायणके पास चक्ररत्न होता है। जब दोनोंका युद्ध होता है तो प्रतिनारायण नारायण पर चक्र चलाता है। इस तरह वह चक्र प्रतिनारायणसे नारायणके पास आ जाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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