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________________ प्रथम अध्याय विधिवद्धर्मसर्वस्वं यो बुद्ध्वा शक्तितश्चरन् । प्रवक्ति कृपयाऽन्येषां श्रेयः श्रेयोथिनां हि सः॥१०॥ विधिवत्-विधानाह, धर्मसर्वस्वं-रत्नत्रयसमाहितमात्मानं श्रेयः-सेव्यः ॥१०॥ अथ वाचनाचार्याध्यात्मरहस्यदेशकयोलॊके प्रभावप्राकट्यमाशास्ते स्वार्थकमतयो भान्तु मा भान्तु घटदीपवत् । पराथै स्वार्थमतयो ब्रह्मवद् भान्त्वदिवम् ॥११॥ भान्तु-लोके आत्मानं प्रकाशयन्तु । त्रिविधा हि मुमुक्षवः केचित् परोपकाराः. अन्ये स्वोपकाराः, अन्यतरे च स्वोपकारैकपरा इति । ब्रह्मवत्-सर्वज्ञतुल्यम्, अहर्दिवं-दिने दिने नित्यमित्यर्थः । अत्रेयं भावना प्रकटप्रभावे देशके लोकः परं विश्वासमुपेत्य तद्वचसा निरारेकमामुत्रिकाय यतते ॥११॥ जो विधिपूर्वक व्यवहार और निश्चयरत्नत्रयात्मक सम्पूर्ण धर्मको परमागमसे और गुरुपरम्परासे जानकर या रत्नत्रयसे समाविष्ट आत्माको स्वसंवेदनसे जानकर शक्तिके अनुसार उसका पालन करते हुए लाभ पूजा ख्यातिकी अपेक्षा न करके कृपाभावसे दूसरोंको उसका उपदेश करते हैं, अपने परम कल्याणके इच्छुक जनोंको उन्हींकी सेवा करनी चाहिए, उन्हींसे धर्मश्रवण करना चाहिए ॥१०॥ उपदेशकाचार्य और अध्यात्मरहस्यके उपदेष्टाका लोकमें प्रभाव फैले ऐसी आशा करते हैं जिनकी मति परार्थ में न होकर केवल स्वार्थ में ही रहती है वे घटमें रखे दीपककी तरह लोकमें चमके या न चमके, उनमें हमें कोई रुचि नहीं है। किन्तु जो स्वार्थकी तरह परार्थ में भी तत्पर रहते हैं वे ब्रह्मकी तरह दिन-रात प्रकाशमान रहें ॥११॥ विशेषार्थ-तीन प्रकार के मुमुक्ष होते हैं। उनमें से कुछ तो अपना उपकार करते हए भी परोपकार को प्रधान रूपसे करते हैं जैसा कि आगममें कहा है-'मुमुक्षुजन अपने दुःखको दूर करनेके लिए प्रयत्न करना भी उचित नहीं मानते, तथा परदुःखसे दुखी होकर बिना किसी अपेक्षाके परोपकारके लिए सदा तत्पर रहते हैं। कुछ मुमुक्षु स्वोपकारको प्रधानता देते हुए परोपकार करते हैं। कहा भी है-'अपना हित करना चाहिए, यदि शक्य हो तो परहित करना। किन्तु आत्महित और परहितमें-से आत्महित ही सम्यक् रूपसे करना चाहिए।' कुछ अन्य मुमुक्षु केवल स्वोपकारमें ही तत्पर रहते हैं। कहा भी है 'परोपकारको छोड़कर स्वोपकारमें तत्पर रहो। लोकके समान दृश्यमान परपदार्थों का उपकार करनेवाला मूढ़ होता है।' १. स्वदुःखनिघृणारम्भाः परदुःखेषु दुःखिताः । नियंपेक्षं परार्थेषु बद्धकक्षा मुमुक्षवः ॥-महापु. ९।१६४ । २. आदहिदं कादव्वं जइ सक्कइ परहिदं च कादव्वं । आदहिदपरहिदादो आदहिदं सुटछु कादव्वं ॥ ३. परोपकृतिमुत्सृज्य स्वोपकारपरो भव । उपकुर्वन् परस्याज्ञो दृश्यमानस्य लोकवत् ॥-इष्टोप. ३२ श्लो. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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