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________________ प्रथम अध्याय तत्परिज्ञानात् पुनः सम्यग्धर्मानुष्ठाने प्रवर्तमानोऽनाकुलत्वाख्यमनन्तं सुखं परमाव्याबाधत्वं च प्राप्नोतीति परम्परया तदुभयमप्यस्य शास्त्रस्य प्रयोजनं वस्तुतः सुखस्य दुःखनिवृत्तेर्वा पुरुषेणार्थ्यमानत्वात् तत्र (तच्च ) निर्दुःखं सुखमिति पदद्वयेनोक्तमेव । प्रमाणं तु 'पद्यद्विसहरूया' इत्यनेनैवोक्तं तावत् । ग्रन्थतस्तु द्विसहस्रप्रमाण- ३ मस्य । नाम पुनरस्य 'धर्मामृत'मिति प्राग् व्युत्पादितम् । कर्ता त्वस्यार्थतोऽनुवादकत्वेन ग्रन्थतश्च पद्यसन्दर्भनिर्मापकत्वेन 'अहं' इत्यनेनोक्तः। संबन्धश्चास्य शास्त्रस्य सम्यग्धर्मस्वरूपादेश्चाभिधानाभिधेयलक्षणो नाम्नवाभिहित इति सर्वं सुस्थम् ॥६॥ अथ दुर्जनापवादशङ्कामपनुदति परानुग्रहबुद्धीनां महिमा कोऽप्यहो महान् । येन दुर्जनवाग्वज्रः पतन्नेव विहन्यते ॥७॥ स्पष्टम् ।।७॥ - अथ सम्यग्धर्मोपदेशकानां समासोक्त्या कलिकाले दुर्लभत्वं भावयति हेतु प्रयोजनको कहते हैं । 'सम्यक् धर्मके स्वरूप आदिका कथन करूँगा, उसे सुनो', इन दो पदोंसे प्रयोजनकी सूचना की गयी प्रतीत होती है। जिसके द्वारा कार्यमें प्रेरित किया जाता है उसे प्रयोजन कहते हैं। ज्ञानके द्वारा ही शास्त्र-श्रवण आदि क्रियामें प्रेरित होता है इसलिए वही शास्त्रका मुख्य प्रयोजन है । शास्त्र-श्रवण आदिसे मुझे ज्ञानकी प्राप्ति होगी इस हेतुसे ही शास्त्र में प्रवृत्त होता है । इसलिए इस शास्त्रका मुख्य प्रयोजन सम्यग्धर्मके स्वरूपका ज्ञान ही है । आनुषंगिक प्रयोजन धर्मकी सामग्री आदिका ज्ञान भी है। उसको जानकर सम्यग्धर्मका पालन करने में लगा व्यक्ति अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, वितृष्णामय अविनाशी, अतीन्द्रिय सुख और परम अव्याबाधत्व गुणोंको प्राप्त करता है। इस प्रकार परम्परासे ये सब भी इस शास्त्रके प्रयोजन हैं। वास्तव में पुरुष सुख या दुःख निवृत्तिको ही चाहता है। 'निदुख सुख' इन दो पदोंसे वह बात कही ही है। प्रमाण दो हजार पद्य द्वारा बतला दिया गया है अर्थात् इस ग्रन्थका प्रमाण दो हजार पद्य हैं। इसका नाम 'धर्मामृत है' यह भी पहले व्युत्पत्ति द्वारा बतला दिया है। 'अहं' (मैं) पदसे कर्ता भी कह दिया है। अर्थरूपसे और ग्रन्थरूपसे मैंने (आशाधरने) इसकी रचना की है, अर्थरूपसे मैं इसका अनुवादक मात्र हूँ। जो बात पूर्वाचार्योंने कही है उसे ही मैंने कहा है और ग्रन्थरूपसे मैंने इसके पद्योंकी रचना की है। इस शास्त्रका और इसमें प्रतिपाद्य सम्यग्धर्म स्वरूप आदिका वाच्यवाचक भाव रूप सम्बन्ध है यह इस ग्रन्थके नामसे ही कह दिया गया है। अतः यह ग्रन्थ सम्यग्धर्मके अनुष्ठान और अनन्त सुख आदिका साधनरूप ही है यह निश्चित रूपसे समझ लेना चाहिए। इससे इस शास्त्रके सम्बन्ध, अभिधेय और प्रयोजन रहित होनेकी शंकाका निराश हो जाता है ॥६॥ ___ आगे दुर्जनोंके द्वारा अपवाद किये जानेकी शंकाको दूर करते हैं जिनकी मति दूसरोंके कल्याणमें तत्पर रहती है. उनकी कोई अनिर्वचनीय महान् महिमा है जिससे दुर्जनोंका वचनरूपी वन गिरते ही नष्ट हो जाता है ॥७॥ __ आगे ग्रन्थकार समासोक्ति अलंकारके द्वारा कलिकालमें सम्यग्धर्मके उपदेशकोंकी दुर्लभता बतलाते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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