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________________ नवम अध्याय ६५७ अथैकैकस्यापि परमेष्ठिनो विनयकर्मणि लोकोत्तरं महिमानमावेदयति नेष्टं विहन्तं शुभभावभग्नरसप्रकर्षः प्रभुरन्तरायः । तत्कामचारेण गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थकृदर्हदादेः॥२६॥ रसविपाकः ॥२६॥ विनाश भी होता है और पुण्यका संचय भी होता है। कहा है-यह पंचनमस्कार सब पापोंको नाश करनेवाला है और सब मंगलोंमें मुख्य मंगल है। श्वेताम्बरीय लघु नवकार फलमें इसे जैन शासनका सार और चौदह पूर्वोका उद्धार कहा है-जो जिनशासनका सार है और चौदह पूर्वोका उद्धार रूप है ऐसा नवकार मन्त्र जिसके मनमें है संसार उसका क्या कर सकता है ? और भी उसीमें कहा है-यह काल अनादि है, जीव अनादि है, जिनधर्म अनादि है। तभीसे वे सब इस नमस्कार मन्त्रको पढ़ते हैं । जो कोई भी कर्म फलसे मुक्त होकर मोक्षको गये, जाते हैं और जायेंगे, वे सब नमस्कार मन्त्रके प्रभावसे ही जानने चाहिए ॥२५॥ आगे एक-एक परमेष्ठीकी भी विनय करनेका अलौकिक माहात्म्य बतलाते हैं अन्तराय कर्मकी इष्टको घातनेकी शक्ति जब शुभ परिणामोंके द्वारा नष्ट कर दी जाती है तो वह वांछित वस्तुकी प्राप्तिमें विघ्न डालने में असमर्थ हो जाता है। इसलिए गुणोंमें अनुरागवश कर्ता अपनी इच्छानुसार अर्हन्त, सिद्ध आदिका जो स्तवन, नमस्कार आदि करता है उससे इच्छित प्रयोजनकी सिद्धि होती है ।।२६।। विशेषार्थ-जब अहन्त आदि स्तुतिसे प्रसन्न नहीं होते और निन्दासे नाराज नहीं होते तब उनके स्तवन आदि करनेसे मनुष्योंके इच्छित कार्य कैसे पूरे हो जाते हैं यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है । उसीके समाधानके लिए कहते हैं कि मनुष्यके प्रयत्न करनेपर भी जो उसके मनोवांछित कार्य पूर्ण नहीं होते इसमें उस मनुष्यके द्वारा पूर्व में बाँधे गये अन्तराय कर्मका तीव्र अनुभागबन्ध रुकावट डालता है। पंचपरमेष्ठीमें-से किसीके भी गुणोंमें श्रद्धा करके जो कर्ता स्तवनादि करता है उससे होनेवाले शुभ परिणामोंसे पूर्वबद्ध अन्तराय कर्मके तीव्र अनुभागमें मन्दता आती है। उसके कारण अन्तराय कर्मकी शक्ति क्षीण होनेसे कर्ताका मनोरथ पर्ण हो जाता है। नासमझ समझ लेते हैं कि भगवानने हमारा मनोरथ पूर्ण किया। यदि कर्ताका अन्तराय कर्म तीव्र हो और कर्ता विशुद्ध भावोंसे आराधना न करे तो कार्यमें सफलता नहीं मिलती। नासमझ इसका दोष भगवान्को देते हैं और अपने परिणामोंको नहीं देखते । ग्रन्थकार कहते हैं कि अर्हन्त आदिका स्तवन, पूजन आदि उनके गुणों में अनुरागवश ही किया जाना चाहिए । तभी कार्य में सफलता मिलती है। केवल अपने मतलबसे स्तवन आदि करनेसे सच्चा लाभ नहीं होता ॥२६॥ १. "जिणसासणस्स सारो चउदस पुन्वाण जो समुद्धारो। जस्स मणे नवकारो संसारो तस्स किं कुणइ ?॥' २. 'एसो अणाइ कालो अणाइ जीवो अणाइ जिणधम्मो । तइया वि ते पढंता एसुच्चिय जिणणमुक्कारं ॥ जे केई गया मोक्खं गच्छंति य के वि कम्मफलमुक्का। ते सव्वे वि य जाणसु जिणणवकारप्पभावेण ॥'-लघुनवकारफल १६-१७ गा.। ८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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