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________________ १२ धर्मामृत ( अनगार) यन्नित्यर्थः । निर्जरयन्-पुराजितपातकमेकदेशेन क्षपयन् । शुभैः-अपूर्वपुण्यैः पूर्वाजितपुण्यपवित्रमकल्याणश्च ॥५॥ ___ अथैवं भगवसिद्धादिगुणगणस्तवनलक्षणं मुख्यमङ्गलमभिधाय इदानीं प्रमाणगर्भमभिधेयव्यपदेशमुखप्रकाशितव्यपदेशं शास्त्रविशेष कर्तव्यतया प्रतिजानीते या जो आत्माको सुगतिमें धरता है ले जाता है उसे धर्म कहते हैं। यह धर्म शब्दका व्युत्पत्तिपरक अर्थ है जो व्यावहारिक धर्मका सूचक है। यथार्थमें तो जो जीवोंको संसारके दुखोंसे छुड़ाकर उन्हें उत्तम सुख रूप मोक्ष गतिमें ले जाता है वही धर्म' है। वह धर्म रत्नत्रयस्वरूप है, अथवा मोह और क्षोभसे रहित आत्मपरिणाम स्वरूप है, अथवा वस्तुका यथार्थस्वभाव ही उसका धर्म है या उत्तम क्षमा आदि दसलक्षण रूप है। ऐसे धर्मके उपदेशको देशना कहते हैं । देशनाको सुनकर अपने क्षयोपशमके अनुसार श्रोतामें जो अतिशयका आधान होता है यही उस देशनाका अनुग्रह या उपकार है। श्रोता अनेक प्रकारके होते हैं। जिन भव्य श्रोताओंके तीव्र ज्ञानावरण कर्मका उदय होता है वे धर्मोपदेश सुनकर धर्मका यही स्वरूप है या धर्म ऐसा ही होता है ऐसा निश्चय करते हैं इस तरह उनका धर्मविषयक अज्ञान दूर होता है। जिन श्रोताओंके ज्ञानावरण कर्मका मन्द उदय होता है वे देशनाको सुनकर धर्मविषयक सन्देहको-यही धर्म है या धर्मका अन्य स्वरूप है, धर्म इसी प्रकार होता है या अन्य प्रकार होता है-दूर करते हैं। जिनके ज्ञानावरण कर्मका मध्यम उदय होता है ऐसे श्रोता उपदेशको सुनकर धर्मविषयक अपनी भ्रान्तिसे-धर्मके यथोक्त स्वरूपको अन्य प्रकारसे समझ लेनेसे-विरत हो जाते हैं । अर्थात् धर्मको ठीक-ठीक समझने लगते हैं। ये तीनों ही प्रकारके श्रोता मतपरिणामी मिथ्यादष्ट्रि अथवा सम्यक्त्वके ि अव्युत्पन्न होते हैं । क्रूर परिणामी मिथ्यादृष्टि तो उपदेशका पात्र ही नहीं है। जो सम्यग्दृष्टि भव्य होते हैं, उपदेशको सुनकर उनकी आस्था और दृढ़ हो जाती है कि यह ऐसा ही है। जो उनसे भी उत्तम सम्यग्दष्टि होते हैं वे उपदेशको सुनकर के आचरणमें तत्पर होते हैं। प्रतिदिन उपदेश सुननेसे श्रोताओंको प्रतिदिन यह लाभ होता है । वक्ताको भी लाभ होता है। पूर्वार्जित पुण्य कर्मके विपाकसे होनेवाले शुभपरिणामोंसे ज्ञानावरण आदि कर्म रूप आगामी पापबन्धका निरोध होता है अर्थात् मन वचन कायके व्यापाररूप योगके द्वारा आगामी पाप कर्म रूप होनेके योग्य जो पुद्गल वर्गणाएँ उस रूपसे परिणमन करतीं वे तद्रप परिणमन नहीं करती हैं। इस तरह वक्ताके केवल पाप कर्मके बन्धका निरोध ही होता हो ऐसा नहीं है, पूर्व संचित पापकर्मका भी एकदेशसे क्षय होता है। सारांश यह है कि देशना धर्मोपदेश रूप होनेसे स्वाध्याय नामक तपका भेद है अतः अशुभ कर्मोंके संवरके साथ निर्जराके होनेपर भी वक्ताका देशनामें प्रशस्त राग रहता है अतः उस प्रशस्त रागके योगसे प्रचुर पुण्य कर्मका आस्रव होता है और पूर्व पुण्य कर्मके विपाककी अधिकतासे नवीन कल्याण परम्पराकी प्राप्ति होती है ॥५॥ इस प्रकार भगवान् सिद्धपरमेष्ठी आदिके गुणोंका स्मरणरूप मुख्य मंगल करके अब . उसा १. रत्न. श्रा., २ श्लो.। २. प्रवचनसार, गा. ७ । धम्मो बत्थसहावो खमादिभावो य दसविहो धम्मो । रयणत्तयं च धम्मो जीवाणं रक्खणं धम्मो ॥-स्वा. काति, ४७८ गा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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