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________________ ६२६ धर्मामृत (अनगार) प्रतिभ्रामरि वार्चादिस्तुतौ दिश्येकशश्चरेत् । श्रीनावर्तान् शिरश्चैकं तवाधिक्यं न दुष्यति ॥९१॥ ३ प्रतिभ्रामरि-एककस्मिन् प्रदक्षिणीकरणे । अर्चादिस्तुती-चैत्यादिभक्तो। दिश्येकशः-एकैकस्यां पूर्वादिदिशि । शिरः-करमुकुलाङ्कितशिरःकरणम् । उक्तं च 'चतुदिक्षु विहारस्य परावर्तास्त्रियोगगाः। प्रतिभ्रामरि विज्ञेया आवर्ता द्वादशापि च ॥ [ ] तदाधिक्यं-आवर्तानां शिरसां चोक्तप्रमाणादधिकीकरणं प्रदक्षिणात्रये तत्संभवात् । उक्तं च चारित्रसारे–एकस्मिन् प्रदक्षिणीकरणे चैत्यादीनामभिमुखीभूतस्यावर्तत्रयैकावनमने कृते चतसृष्वपि दिक्षु द्वादशा९ वर्ताश्चतस्रः शिरोवनतयो भवन्ति । आवर्तनानां शिरः प्रणतीनामुक्तप्रमाणादाधिक्यमपि न दोषायेति ।।९१॥ अथोक्तस्यैव समर्थनार्थमाह दीयते चैत्यनिर्वाणयोगिनन्दीश्वरेषु हि । वन्धमानेष्वधीयानस्तत्तभक्ति प्रदक्षिणा ॥१२॥ स्पष्टम् ॥९२॥ अथ स्वमतेन परमतेन च नतिनिर्णयार्थमाह wwwwwwwwwww अथवा चैत्यआदि भक्तिमें प्रत्येक प्रदक्षिणामें एक-एक दिशामें तीन आवर्त और दोनों हाथोंको मुकुलित करके मस्तकसे लगाना इस प्रकार एक शिर करना चाहिए। इस तरह करनेसे आवर्त और शिरोनतिका आधिक्य दोषकारक नहीं होता ॥९१।। विशेषार्थ-ऊपर दो प्रकार बतलाये हैं। एक प्रकार है सामायिक और स्तवके आदि और अन्तमें तीन आवर्त और एक शिरोनति करना । इस तरहसे बारह आवर्त और चार शिरोनति होते हैं। दूसरा इस प्रकार है चारों दिशाओंमें-से प्रत्येक दिशामें प्रदक्षिणाके क्रमसे तीन आवर्त और एक शिरोनति । इस तरह एक प्रदक्षिणामें बारह आवर्त और चार शिरोनति होती हैं। किन्तु इस तरह तीन प्रदक्षिणा करनेपर आवतों और शिरोनतिकी संख्या बढ़ जाती है । किन्तु इसमें कोई दोष नहीं है। चारित्रसारमें ऐसा लिखा है जो हम पहले लिख आये हैं ॥२१॥ आगे इसीका समर्थन करते हैं क्योंकि चैत्यवन्दना, निर्वाणवन्दना, योगिवन्दना, और नन्दीश्वर वन्दना करते समय उन-उन भक्तियोंको पढ़ते हुए साधुगण प्रदक्षिणा दिया करते हैं ।।१२॥ विशेषार्थ-चैत्यवन्दना करते समय चैत्यभक्ति, निर्वाणवन्दना करते समय निर्वाणभक्ति, योगिवन्दना करते समय योगिभक्ति और नन्दीश्वर वन्दना करते समय नन्दीश्वर भक्ति साधुगण पढ़ते हैं। और पढ़ते हुए प्रदक्षिणा करते हैं जिससे चारों दिशाओं में स्थित चैत्य आदिकी वन्दना हो सके। अतः प्रत्येक दिशामें तीन आवर्त और एक नमस्कार करते हैं। तीन प्रदक्षिणा करनेपर आवों और नमस्कारकी संख्या तिगुनी हो जाती है जो दोष नहीं है ।।१२।। आगे ग्रन्थकार अपने और दूसरे आचार्योंके मतसे शिरोनतिका निर्णय करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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