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________________ अष्टम अध्याय उद्देशो ग्रन्थादिप्रारम्भः । निर्देशः प्रारब्धग्रन्थादिसमाप्तिः। प्रणिधानं मनोविकारोऽशुभपरिणामस्तत्क्षणोत्पन्न इत्यर्थः । यत्तु'जन्तुघातानृतादत्तमैथुनेषु परिग्रहे । उवासाः कायोत्सर्गाः प्रकीर्तिताः॥'[ इति सूत्रे वचस्तच्चशब्देन समुच्चीयते ॥७३॥ अथ व्रतारोपण्यादिप्रतिक्रमणासूच्छवाससंख्यानिर्देशार्थमाह या वतारोपणी सार्वातिचारिक्यातिचारिकी। औत्तमार्थी प्रतिक्रान्तिः सोच्छ्वासैराह्निकी समा ॥४॥ आह्निकी समा। वीरभक्तिकालेऽष्टोत्तरशतोच्छ्वासकायोत्सर्गे इत्यर्थः ॥७४॥ अथाहोरात्रस्वाध्यायादि-विषयकायोत्सर्गसंख्यासंग्रहार्थमाह स्वाध्याये द्वादशेष्टा षड्वन्दनेऽष्टौ प्रतिक्रमे । कायोत्सर्गा योगभक्तौ द्वौ चाहोरात्रगोचराः ॥७॥ १२ अहोरात्रगोचराः । सर्वे मिलिता अष्टाविंशतिः। एते च विभागेनोत्तरत्र व्यवहरिष्यन्ते ।।७५।। अथ कायोत्सर्गे ध्यानविशेषमुपसर्गपरीषहसहनं च नियमयन् कर्मनिर्जरणातिशयं फलत्वेनोपदिशतिग्रन्थकी समाप्ति होनेपर, सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए। इसी तरह स्वाध्याय और वन्दनामें भी सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए। मनमें विकार उत्पन्न होनेपर तत्क्षण सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए। प्राणिवध सम्बन्धी, असत्यालाप सम्बन्धी, चोरीसम्बन्धी, मैथुनसम्बन्धी और परिग्रहसम्बन्धी दोष लगनेपर १०८ उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करना चाहिए । मूलाचारके इस कथनका ग्रहण ग्रन्थकारने च शब्दसे किया है ॥७३॥ आगे व्रतारोपण आदि सम्बन्धी प्रतिक्रमणोंमें उच्छ्वासकी संख्या बतलाते हैं व्रतारोपण सम्बन्धी, सर्वातिचार सम्बन्धी, अतिचार सम्बन्धी और उत्तमार्थ सम्बन्धी प्रतिक्रमणोंमें उच्छ्वासोंकी संख्या दैवसिक प्रतिक्रमण सम्बन्धी उच्छ्वासोंके समान १०८ होती है ॥७४॥ विशेषार्थ-पहले श्लोक ५८ में प्रतिक्रमणके सात भेद कहे हैं। इनका स्वरूप वहाँ बतलाया है। उन्हींके उच्छ्वासोंका प्रमाण यहाँ दैवसिक प्रतिक्रमणकी तरह १०८ कहा है ॥४॥ आगे दिन-रातमें स्वाध्याय आदि सम्बन्धी कायोत्सर्गोंकी संख्याको बतलाते हैं स्वाध्यायमें बारह, वन्दनामें छह, प्रतिक्रमणमें आठ और योगभक्तिमें दो, इस तरह दिन-रातमें अट्ठाईस कायोत्सर्ग आचार्योने माने हैं ।।७५।। विशेषार्थ-इनका विभाग ग्रन्थकार आगे करेंगे॥७५।। आगे कर्मोंकी सातिशय निर्जरा रूप फलके लिए कायोत्सर्गमें ध्यान विशेषका तथा उपसर्ग और परीषहोंको सहनेका उपदेश करते हैं१. 'पाणिवह मुसावाए अदत्त मेहुण परिग्गहे चेय । अट्रसदं उस्सामा काओसग्गम्हि कादव्वा ॥'-मूलाचार ७।१६२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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