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________________ अष्टम अध्याय नेकधा-द्विमुहूर्तप्रहरदिवसाद्यपेक्षया कार्यकालद्रव्यक्षेत्रभावाद्यपेक्षया वो अनेकप्रकारा मध्यमावित्यर्थः । यदाह 'अस्ति वर्ष समुत्कृष्टो जघन्योऽन्तर्मुहूर्ततः। कायोत्सर्गः पुनः शेषा अनेकस्थानमागताः ॥ ॥७१।। अथ देवसिकादिप्रतिक्रमणकायोत्सर्गेयूच्छ्वाससंख्याविशेषनिर्णयार्थमाह उच्छ्वासाः स्युस्तनूत्सर्गे नियमान्ते दिनादिषु । पञ्चस्वष्टशतात्रिचतुःपञ्चशतप्रमाः ॥७२॥ .. नियमान्ते-वीरभक्तिकरणकाले। अष्टशतं-अष्टाभिरधिकं शतम् । अर्ध-चतुःपञ्चाशत् । उक्तं च 'आह्निकेऽष्टशतं रात्रिभवेऽधं पाक्षिके तथा । नियमान्तेऽस्ति संस्तेयमुच्छ्वासानां शतत्रयम् ॥ चतुःपञ्चशतान्याहुश्चतुर्मासाब्दसंभवे । इत्युच्छ्वासास्तनूत्सर्गे पञ्चस्थानेषु निश्चिताः ॥' [ 1॥७२॥ लगता है । अतः पूरे मन्त्रका एक बार चिन्तन तीन उच्छ्वासोंमें होता है। नौ बार चिन्तन करनेमें सत्ताईस उच्छ्वास होते हैं। आचार्य अमितगतिने कहा है-'नौ बार पंच नमस्कार मन्त्रका चिन्तन करनेपर सत्ताईस उच्छ्वास संसारका उन्मूलन करने में समर्थ हैं।' उच्छ्वास अर्थात् प्राणवायुका लेना निकालना । उच्छ्वासका यह लक्षण कायोत्सर्गके उत्कृष्ट और जघन्य प्रमाणमें भी यथासम्भव लगा लेना चाहिए ।।७।। दैनिक आदि प्रतिक्रमण और कायोत्सर्गों में उच्छ्वासोंकी संख्याका निर्णय करते हैं दैवसिक आदि पाँच प्रतिक्रमणोंके अवसरपर वीरभक्ति करते समय जो कायोत्सर्ग किये जाते हैं उनमें क्रमशः एक सौ आठ, चउवन, तीन सौ, चार सौ, पाँच सौ उच्छ्वास होते हैं। अर्थात् दिन सम्बन्धी कायोत्सर्गमें एक सौ आठ, रात्रि सम्बन्धी कायोत्सर्गमें चउवन, पाक्षिकमें तीन सौ, चातुर्मासिकमें चार सौ और वार्षिकमें पाँच सौ उच्छ्वास होते हैं ॥७२॥ विशेषार्थ-मूलाचारमें कहा है-दैवसिक प्रतिक्रमण सम्बन्धी कायोत्सर्गमें एक सौ आठ उच्छ्वास करने चाहिए । रात्रिक प्रतिक्रमण सम्बन्धी कायोत्सर्गमें चउवन उच्छ्वास करने चाहिए । पाक्षिक प्रतिक्रमण सम्बन्धी कायोत्सर्गमें तीन सौ उच्छ्वास करने चाहिए । ये वीरभक्तिके अन्तमें प्रमादरहित होकर करना चाहिए । चातुर्मासिक प्रतिक्रमणमें चार सौ उच्छवास और वार्षिक प्रतिक्रमणमें पाँच सौ उच्छवास होते हैं। इस प्रकार पाँच स्थानोंमें ३. संस्थे १. र्तगः भ. कु. च.। २. नगा मताः भ. कु. च.। संस्थे य-भ. कु. च.। ४. 'अट्ठसदं देवसियं कल्लद्धं पक्खियं च तिण्णि सया। उस्सासा कायव्वा णियमंते अप्पमत्तेण ॥ चाउम्मासे चउरो सदाई संवत्थरे य पंचसदा । काओसग्गुस्सासा पंचसु ठाणेसु णादव्वा ॥'-गा. ७१६०-१६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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