SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० धर्मामृत ( अनगार) यन्तीत्येतान् धर्माचार्यान् । अभिन्नदशपूर्विण:-अभिन्नाः विद्यानुवादपाठे स्वयमायातद्वादशशतविद्याभिर प्रच्यावितचारित्रास्ते च ते दशपूर्वाण्युत्पादपूर्वादिविद्यानुवादान्तान्येषां सन्तोति दशपूर्विणश्च तान् । प्रत्येक३ बुद्धान्–एक केवलं परोपदेशनिरपेक्षं श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषं प्रतीत्य बुद्धान् संप्राप्तज्ञानातिशयान् श्रतकेवलिन:-समस्तश्रुतधारिणः ॥३॥ अधुना जिनागमव्याख्यातनारातोयसूरीनभिष्टौति ग्रन्थार्थतो गुरुपरम्परया यथावच्छ्रुत्वावधायं भवभीरतया विनेयान् । ये ग्राहयन्त्युभयनीतिबलेन सूत्रं रत्नत्रयप्रणयिनो गणिनः स्तुमस्तान् ॥४॥ ग्राहयन्ति-निश्चाययन्ति, उभयनीतिबलेन-उभयी चासो नीतिः-व्यवहारनिश्चयद्वयी, ९ तदवष्टम्भेन गणिनः-श्रीकुन्दकुन्दाचार्यप्रभृतीन् इत्यर्थः ॥४॥ पूर्व विद्यानुवादको पढ़ते हैं तो विद्यानुवादके समाप्त होनेपर सात सौ लघुविद्याओंके साथ पाँच सौ महाविद्याएँ उपस्थित होकर पूछती हैं-भगवन् ! क्या आज्ञा है ? ऐसा पूछने पर जो उनके लोभमें आ जाता है वह भिन्न दसपूर्वी होता है । किन्तु जो उनके लोभमें नहीं आता और कर्मक्षयका ही अभिलाषी रहता है वह अभिन्न दसपूर्वी है। परोपदेशसे निरपेक्ष जो श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशम विशेषसे स्वयं ज्ञानातिशयको प्राप्त होते हैं उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहते हैं । समस्त श्रुतके धारीको श्रुतकेवली कहते हैं । वे श्रुतज्ञानके द्वारा सर्वज्ञ केवलज्ञानीके सदृश होते हैं इसलिए उन्हें श्रुतकेवली कहते है। आचार्य समन्तभद्रने अपने आप्तमीमांसामें श्रुतज्ञान और केवलज्ञानको सर्वतत्त्वप्रकाशक कहा है। अन्तर यह है कि श्रुतज्ञान परोक्ष होता है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष होता है । ये सब-गणधर, अभिन्नदसपूर्वी, प्रत्येक बुद्ध और श्रुतकेवली ग्रन्थकार होते हैं, भगवान्की वाणीके आधारपर ग्रन्थोंकी रचना करते हैं, इसीसे ग्रन्थकार उनके ग्रन्थकारता और गणधरपना आदि गुणोंका प्रार्थी होकर उनका ध्यान करता है तथा उन्हें अपना ध्येय-ध्यानका विषय-निश्चय करके ध्यानमें प्रवृत्त होता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आगममें (मूलाराधना गा. ३४, मूलाचार ५।८०) गणधर, प्रत्येकबुद्ध, अभिन्नदसपूर्वी और श्रुतकेवलीके द्वारा रचितको ही सूत्र कहा है। उसीको दष्टिमें रखकर आशाधरजीने सूत्र ग्रन्थके रूपमें उनका स्मरण किया है। यहाँ सूत्रकारपना और गणधरपना या प्रत्येक बुद्धपना या श्रुतकेवलीपना दोनों ही करणीय हैं। अतः उन गुणोंकी प्राप्ति की इच्छासे ध्यान करनेवालेके लिए वे ध्यान करनेके योग्य हैं ऐसा निश्चय होनेसे ही उनके ध्यानमें ध्याताकी प्रवृत्ति होती है ॥३॥ __ आगे जिनागमके व्याख्याता आरातीय आचार्योंका स्तवन करते हैं जो गुरुपरम्परासे ग्रन्थ, अर्थ और उभयरूपसे सूत्रको सम्यक् रीतिसे सुनकर और अवधारण करके संसारसे भयभीत शिष्योंको दोनों नयोंके बलसे ग्रहण कराते हैं, रत्नत्रयरूप परिणत उन आचार्योंका मैं स्तवन करता हूँ ॥४॥ . विशेषार्थ-यहाँ ग्रन्थकार श्रीकुन्दकुन्दाचार्य आदि धर्माचार्योंकी वन्दना करते हैं। 'उस उस जातिमें जो उत्कृष्ट होता है उसे उसका रत्न कहा जाता है, इस कथनके अनुसार जीवके परिणामोंके मध्यमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र रूप परिणाम उत्कृष्ट हैं क्योंकि वे सांसारिक अभ्यदय और मोक्षके प्रदाता हैं इसलिए उन्हें रत्नत्रय कहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्द आदि धर्माचार्य रत्नत्रयके धारी थे-उनका रत्नत्रयके साथ तादात्म्य सम्बन्ध था अतः वे रत्नत्रय रूप परिणत थे। तथा उन्होंने तीर्थकर, गणधर आदि की शिष्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy