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________________ अष्टम अध्याय ६०७ मनोवाक्कायैस्त्यजनादिकं भावप्रत्याख्यानम् । अथवा प्रत्याख्यानप्राभृतज्ञायकस्तद् विज्ञानं जीवप्रदेशा वेति । किं च, 'भविष्यवर्तमानकालविषयाती वारनिर्हरणं प्रत्याख्यानम्' इत्याचारटीकाकारेण यत्प्रत्याख्यानलक्षणमाख्यायि तदपि निरोद्धुमाग इति सामान्यनिर्देशादिह संगृहीतमुन्नेयम् ॥ ६५॥ एतदेव संगृहन्नाह - तन्नाम स्थापनां तां तद्द्द्रव्यं क्षेत्रमञ्जसा । तं कालं तं च भावं न श्रयेन्न श्रेयसेऽस्ति यत् ॥ ६६ ॥ अञ्जसा - परमार्थेन, भावेनेत्यर्थः । एतेनोपसर्गादिवशादयोग्यश्रयणेऽपि न प्रत्याख्यानहानिरिति बोध यति ४६६ ॥ ये सब नोआगम द्रव्य प्रत्याख्यान है । असंयम आदिके कारणभूत क्षेत्रका स्वयं त्याग करना, दूसरे से त्याग कराना तथा कोई अन्य त्याग करता हो तो उसकी अनुमोदना करना क्षेत्र प्रत्याख्यान है । अथवा जिस क्षेत्रपर प्रत्याख्यान किया गया हो वह क्षेत्र प्रत्याख्यान है । असंयम आदि में निमित्त कालका स्वयं त्याग करना, दूसरेसे त्याग कराना और कोई अन्य उसका त्याग करता हो तो उसकी अनुमोदना करना काल प्रत्याख्यान है । अथवा प्रत्याख्यान करनेवालेके द्वारा सेवित कालको काल प्रत्याख्यान कहते हैं । मन वचन कायसे मिथ्यात्व आदिका त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है । अथवा प्रत्याख्यान विषयक शास्त्रका जो ज्ञाता उसमें उपयुक्त है उसे, उसके प्रत्याख्यान विषयक ज्ञानको और जीव प्रदेशोंको भाव प्रत्याख्यान कहते हैं । इस प्रकार प्रत्याख्यानके विषयमें छह प्रकारका निक्षेप होता है । मूलाचारके टीकाकार वसुनन्दि आचार्यने गाथा ७।१३५ की टीका में उक्त छह निक्षेपोंका वर्णन करके अन्तमें भविष्यत् और वर्तमानकाल सम्बन्धी अतीचारोंके निरोधको प्रत्याख्यान कहा है । ऊपर के इलोक में 'निरोद्धुमाग:' इस सामान्य कथनसे उसका भी संग्रह इस ग्रन्थ के रचयिताने किया है ||६५|| अथ योग्यनामादिसेविनः परम्परया रत्नत्रयाराधकत्वमवश्यं तया प्रकाशयन्नाह - यो योग्यनामाद्युपयोग तस्वान्तः पृथक् स्वान्तमुपैति मूर्तेः । सदाऽस्पृशन्नप्यपराधगन्धमाराधयत्येव स वर्त्म मुक्तेः ॥६७॥ उपयोग :- सेवनम् । स्वान्तं - आत्मस्वरूपम् । अपराधगन्धं - राधः संसिद्धिः स्वात्मोपलब्धि- १२ रित्यर्थः । अपगतो राधो अपराधः परद्रव्यग्रहः । तस्य गन्धमपि प्रमादलेशमपीत्यर्थः ॥ ६७ ॥ को संगृहीत करते हुए कहते हैं जो मोक्षके साधनमें उपयोगी नहीं है उस नामको, उस स्थापनाको, उस द्रव्यको, उस क्षेत्रको, उस कालको और उस भावको परमार्थसे सेवन नहीं करना चाहिए । 'परमार्थ से ' कहने से यह ज्ञान कराया है कि उपसर्ग आदिके कारण अयोग्यका सेवन होनेपर भी प्रत्याख्यानमें हानि नहीं होती ||६६ || जो योग्य नाम आदिका सेवन करता है वह परम्परासे अवश्य ही रत्नत्रयका आराधक होता है, यह प्रकट करते हैं जो नामादियोग अर्थात् शुद्धोपयोग में सहायक होते हैं उन्हें योग्य कहते हैं । जिस साधुने ऐसे योग्य नाम स्थापना द्रव्य क्षेत्र काल भावके सेवनसे अपने मनको पवित्र किया है, और शरीर से आत्माको भिन्न मानता है, सदा अपराधकी गन्धसे दूर रहनेवाला वह साधु मोक्षके मार्गका अवश्य ही आराधक होता है ॥६७॥ Jain Education International ३ For Private & Personal Use Only ६ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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