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________________ अष्टम अध्याय ५९९ युक्तेन समाहितेन तदर्थनिष्ठेनेत्यर्थः । पठेत् — उच्चरेत् । शुद्धयै – विपुलकर्मनिर्जरार्थम् । उक्तं च 'भावयुक्तोऽयं तन्निष्ठः सदा सूत्रं तु यः पठेत् । स महानिर्जरार्थाय कर्मणो वर्तते यतिः ॥ [ नियमान् - प्रतिक्रमणदण्डकान् । समान् सर्वान् । व्यवहाराविरोधेन पठेदिति संबन्ध: । आवृत्या समान् कर्मघ्नानित्यपि योज्यम्, सर्वेषां कर्मणां हन्तृत्वोपदेशार्थम् । इदमत्र तात्पर्यं यस्मादैदयुगीना दुषमाकालानुभावाद् वक्रजडीभूताः स्वयमपि कृतं व्रताद्यतिचारं न स्मरन्ति चलचित्तत्वाच्चासकृत्प्रायशोऽपराध्यन्ति तस्मादीर्यादिषु दोषो भवतु वा मा भवतु तैः सर्वाविचारविशुद्धयर्थं सर्वप्रतिक्रमणदण्डकाः प्रयोक्तव्याः । तेषु यत्र क्वचिच्चित्तं स्थिरं भवति तेन सर्वोऽपि दोषो विशोध्येत । ते हि सर्वेऽपि कर्मघातसमर्थाः । तथा चोक्तम् 'सप्रतिक्रमणो धर्मो जिनयोरादिमान्त्ययोः । अपराधे प्रतिक्रान्ति मध्यमानां जिनेशिनाम् ॥ यदोपजायते दोष आत्मन्यन्यतरत्र वा । तदेव स्यात् प्रतिक्रान्तिमंध्यमानां जिनेशिनाम् ॥ 'ईर्यागोचरदुःस्वप्नप्रभृतो वर्ततां न वा । पौरस्त्यपश्चिमाः सर्वे प्रतिक्रामन्ति निश्चितम् ॥ मध्यमा एकचित्ता यदमूढदृढ़बुद्धयः । आत्मनानुष्ठितं तस्माद् गर्हमाणाः सृजन्ति तम् ॥ पौरस्त्यपश्चिमा यस्मात्समोहाश्चलचेतसः । ततः सर्वप्रतिक्रान्तिरन्धोऽश्वोऽत्र निदर्शनम् ॥' [ ] ॥६२॥ हैं । इनसे युक्त साधु भावप्रतिक्रमणसे युक्त होता है । मूलाचारमें कहा है- 'आलोचना, निन्दा और में तत्पर होकर पुनः दोष न लगानेको भावप्रतिक्रमण कहते हैं । उसके विना तो द्रव्यप्रतिक्रमण है । इस भावप्रतिक्रमणसे युक्त होकर दोषोंकी विशुद्धिके लिए प्रतिक्रमण सम्बन्धी पाठोंको मन लगाकर पढ़ना या सुनना चाहिए।' इससे कर्मोंकी निर्जरा होती है। कहा है- 'जो साधु भावप्रतिक्रमणसे युक्त होकर और उसके अर्थ में मन लगाकर सदा प्रतिक्रमण सूत्रको पढ़ता है वह कर्मोंकी महान् निर्जरा करता है ।' तात्पर्य यह है कि इस युगके साधु पंचम कालके प्रभावसे वक्रजड़ होते हैं अर्थात् अज्ञानी होने के साथ कुटिल भी होते हैं। इससे वे अपने ही द्वारा व्रतादि में लगाये दोषों को भूल जाते हैं उन्हें उनका स्मरण नहीं रहता । तथा चंचल चित्त होनेसे प्रायः बार-बार दोष लगाते हैं । इसलिए गमनादिमें दोष लगे या न लगे, उन्हें समस्त दोषोंकी विशुद्धिके लिए सभी प्रतिक्रमण दण्डकोंको पढ़ना चाहिए। उनमें से जिस किसीमें भी चित्त स्थिर होता है उससे सभी दोषोंकी विशुद्धि हो जाती है क्योंकि वे सभी प्रतिक्रमणदण्डक कर्मोंका घात करने में समर्थ हैं किन्तु उनमें चित्त स्थिर होना चाहिए। मूलाचार में कहा भी है- प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर महावीरका धर्म प्रतिक्रमण सहित था । अपराध हुआ हो या न हुआ हो प्रतिक्रमण करना ही चाहिए । किन्तु अजितनाथसे लेकर पार्श्वनाथ पर्यन्त मध्यम तीर्थंकरोंके धर्म में अपराध होनेपर ही प्रतिक्रमण किया जाता था । जिस व्रत में अपनेको या दूसरोंको दोष लगता था उसीका प्रतिक्रमण मध्यम तीर्थंकरों के साधु करते थे । Jain Education International For Private & Personal Use Only ३ ६ ९ १२ १५ १८ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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