SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 645
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५ उक्त mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ५८८ धर्मामृत ( अनगार) अथ व्यवहारनिश्चयस्तवयोः फलविभागं प्रपूरयन्नुपयोगाय प्रेरयतिलोकोत्तराभ्युदयशर्मफलां सृजन्त्या पुण्यावलों भगवतां व्यवहारनुत्या। चित्तं प्रसाद्य सुधियः परमार्थनुत्या स्तुत्ये नयन्तु लयमुत्तमबोधसिद्धये ॥४५॥ स्तुत्ये-शुद्धचिद्रूपस्वरूपे ॥४५॥ अथ एकादशभिः पद्यर्वन्दना व्याचिख्यासुरादितस्तावत्तल्लक्षणमाह वन्दना नतिनुत्याशीर्जयवादादिलक्षणा। भावशुद्धया यस्य तस्य पूज्यस्य विनयक्रिया ॥४६॥ जयवादादि । आदिशब्देन नामनिर्वचनगुणानुध्यान-बहुवचनोच्चारणस्रक्चन्दनाद्यर्चनादि। प्रणतिवन्दनेति कश्चित् । उक्तं च 'कर्मारण्यहुताशनां परानां परमेष्ठिनाम् । प्रणतिर्वन्दनाऽवादि त्रिशुद्धा त्रिविधा बुधैः ॥' [ अमित., श्रा. ८।३३ ] यस्य तस्य-अर्हदादीनां वृषभादीनां चाऽन्यतमस्य । विनयक्रिया-विनयकर्म । उक्तं च किदियम्मं चिदियम्मं पूजाकम्मं च विणयकम्मं च।' [मूलाचार गा. ५७६] ॥४६।। . आगे व्यवहारस्तव और निश्चयस्तवके फलमें भेद बतलाकर उसमें लगनेकी प्रेरणा करते हैं तीर्थंकरोंके ऊपर कहे गये नामस्तव आदि रूप व्यवहारस्तवनसे पुण्यकी परम्परा प्राप्त होती है जिसके फलस्वरूप अलौकिक सांसारिक अभ्युदयका सुख प्राप्त होता है। उसके द्वारा चित्तको सन्तुष्ट करके बुद्धिमानोंको निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्तिके लिए तीर्थंकरोंके निश्चयस्तवनके द्वारा शुद्ध चित्स्वरूपमें चित्तको लीन करना चाहिए ॥४५|| विशेषार्थ-ऊपर जो चतुर्विंशतिस्तवके भेद कहे हैं उनमें एक भाव स्तव ही परमार्थसे स्तव है क्योंकि उसमें तीर्थंकरोंके आत्मिक गुणोंका स्तवन होता है । इस भावस्तवके द्वारा ही शुद्ध चिद्रपमें चित्तको लीन किया जा सकता है। और शुद्ध चिद्रपमें चित्तके लीन होनेसे ही निश्चय रत्नत्रयकी प्राप्ति होती है। किन्तु द्रव्यस्तव, क्षेत्रस्तव, कोलस्तव आदिसे पुण्यबन्ध होता है। वह पुण्यबन्ध भी तभी होता है जब लौकिक सुखकी कामनाको छोड़कर स्तवन किया जाता है । लौकिक सुखकी कामनासे स्तवन करनेसे तो पुण्यबन्ध भी नहीं होता ॥४५॥ आगे ग्यारह श्लोकोंसे वन्दनाका स्वरूप कहने की इच्छा रखकर प्रथम ही वन्दनाका लक्षण कहते हैं _ अर्हन्त, सिद्ध आदि या चौबीस तीर्थंकरोंमें-से किसी भी पूजनीय आत्माका विशुद्ध परिणामोंसे नमस्कार, स्तुति, आशीर्वाद-जयवाद आदिरूप विनयकर्मको वन्दना कहते हैं ॥४६॥ विशेषार्थ-मूलाचारमें वन्दनाके नामान्तर इस प्रकार कहे हैं 'किदियम्मं चिदियम्म पूयाकम्मं च विणयकम्मं च ।'-७७९ । अर्थात् जिस अक्षरसमूहसे या परिणामसे या क्रियासे आठों कोका कर्तन या छेदन होता है उसे कृतिकर्म कहते हैं अर्थात् पापके विनाशके उपायका नाम कृतिकर्म है। जिससे तीर्थकर आदि पुण्यकर्मका संचय होता है उसे चिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy