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________________ ३ धर्मामृत ( अनगार) यत्-अहंदादिस्वरूपम् । अर्चा-प्रतिमा । सुस्था यथोक्तमानोन्मानादियुक्तत्वात् ॥२२॥ अथ द्रव्यसामायिक भावयन्नाह साम्यागमज्ञतद्देही तद्विपक्षौ च यादृशौ । तादृशौ स्तां परद्रव्ये को मे स्वद्रव्यवग्रहः ॥२६॥ साम्यागमज्ञः 'जीवियमरणे लाहालाहे संजोयविप्पओए य । बंधु अरि सुह दुहे वि य समदा सामाइयं णाम ॥' [ मूलाचार, गा. २३ ] इत्यादि सामायिकप्राभृतकस्य ज्ञाता जीवस्तदनुपयुक्तः । तद्विपक्षी-भाविजीवः कर्मनोकर्मद्वयं च । ९ तत्राद्यो ज्ञास्यमानसाम्यागमः । कर्म पुनः साम्ययुक्तेनाजितं तीर्थकरादिकम् । नोकर्म तु साम्यागमोपाध्यायस्तत्पुस्तकस्तद्युक्तोपाध्यायश्चेत्यादि । यादृशौ तादृशौ-शुभावशुभौ वेत्यर्थः । स्तां-भवताम् । स्वद्रव्यवत् । अन्वयमुखेन व्यतिरेकमुखेन वा दृष्टान्तोऽयम् । आरब्धयोगस्यैव हि स्वद्रव्यमात्रेऽभिनिवेशोऽभ्यनुज्ञायते । निष्पन्न१२ योगस्य तु तत्रापि तत्प्रतिषेधात् । तथा चोक्तम् 'मुक्त इत्यपि न कार्यमञ्जसा कर्मजालकलितोऽहमित्यपि । निर्विकल्पपदवीमुपाश्रयन् संयमी हि लभते परं पदम् ॥' [ पद्म. पञ्च. १०।१८ ] अपि च 'यद्यदेव मनसि स्थितं भवेत्तत्तदेव सहसा परित्यजेत् । इत्युपाधिपरिहारपूर्णता सा यदा भवति तत्पदं तदा ॥' [ पद्म. पञ्च., १०।१६ ] विशेषार्थ-अर्हन्तकी प्रतिमाके शास्त्रोक्त रूपको देखकर उससे राग नहीं करना और विपरीत रूपको देखकर द्वेष नहीं करना स्थापना सामायिक है। उसीकी भावना ऊपर कही है। सुन्दर आकार विशिष्ट प्रतिमाको देखकर दर्शकको अर्हन्तके स्वरूपका स्मरण होता है किन्तु दर्शक तो अभी अर्हन्तस्वरूप नहीं है, और प्रतिमास्वरूप तो वह है ही नहीं क्योंकि प्रतिमा तो जड़ है। इस तरह वह प्रतिमामें अपनी बुद्धिको न तो स्थिर ही करता है और न उससे हटाता ही है अर्थात् प्रतिमाको देखकर रागाविष्ट नहीं होता ॥२२॥ आगे द्रव्य सामायिककी भावना कहते हैं सामायिक विषयक शास्त्रका ज्ञाता किन्तु उसमें अनुपयुक्त जीव और उसका शरीर तथा उनके विपक्षी भावि जीव और कर्म-नोकर्म, ये जैसे अच्छे या बुरे हों, रहें, मुझे उनसे क्या, क्योंकि वे तो परद्रव्य हैं। स्वद्रव्यकी तरह परद्रव्यमें मेरा अभिनिवेश कैसे हो सकता है ? ॥२३॥ विशेषार्थ-ऊपर द्रव्य सामायिकके दो भेद कहे हैं-आगम द्रव्य सामायिक और नोआगम द्रव्य सामायिक । सामायिकविषयक शास्त्रका जो ज्ञाता उसमें उपयुक्त नहीं है वह आगम द्रव्य सामायिक है । उसका शरीर नोआगम द्रव्य सामायिकका एक भेद है। इनके विपक्षी हैं नोआगम द्रव्य सामायिकके शेष भेद भाविजीव, जो आगे सामायिकविषयक शास्त्रको जानेगा । तथा कर्म नोकर्म । सामायिकके द्वारा उपार्जित तीर्थकरत्व आदि कर्म है तथा सामायिक विषयक आगमको पढ़ानेवाला उपाध्याय, पुस्तक आदि नोकर्मतद्वयतिरिक्त है। इनमें किसी प्रकारका अच्छा या बुरा अभिनिवेश न करना द्रव्य सामायिक है। क्योंकि ये सब परद्रव्य हैं। सामायिक करते हुए के परद्रव्यमें अभिनिवेश कैसा ? यहाँ . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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