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________________ अष्टम अध्याय ५६५ ननु मुमुक्षोः पापबन्धवत् पुण्यबन्धोऽपि कथमनुरोद्धव्यः स्यादिति वदन्तं प्रत्याह मुमुक्षोः समयाकर्तुः पुण्यादभ्युदयो वरम् । न पापाद्दुर्गतिः सह्यो बन्धोऽपि ह्यक्षयश्रिये ॥१५॥ समयाकतु:-कालं यापयतः । उदासीनज्ञानाकरणशीलस्य वा। वरं-मनागिष्टः । दुर्गतिःनरकादिगतिमिथ्याज्ञानं दारिद्रयं वा। ३ ति: पुण्य पौद्गलिक कर्मों के बन्धमें निमित्त होनेसे शुभ परिणामको पुण्य कहते हैं और पापकोकोबन्धमें कारण होनेसे अशभ परिणामको पाप कहते हैं। और अविशिष्ट परिणाम तो शुद्ध होनेसे एक रूप ही है । उसीसे दुःखोंका क्षय होकर मोक्षकी प्राप्ति होती है। - तत्त्वार्थ सूत्र ( ६।३ )में भी 'शुभः पुण्यस्य अशुभः पापस्य' लिखकर उक्त कथनका ही पोषण किया है। उसकी टीका सर्वार्थसिद्धि आदिमें भी यही कहा है। उसमें यह शंका की गयी है कि जो शुभ कर्मोंका कारण है वह शुभयोग है और जो अशुभ कर्मोका कारण है वह अशुभ योग है। यदि ऐसा लक्षण किया जाये तो क्या हानि है ? इसके समाधानमें कहा हैयदि ऐसा लक्षण किया जायेगा तो शुभयोगका ही अभाव हो जायेगा। क्योंकि आगममें कहा है कि जीवके आयकर्मके सिवाय शेष सात कोका आस्रव सदा होता है। अतः शुभयोगसे भी ज्ञानावरण आदि पापकर्मोंका बन्ध होता है। उक्त कथन धाति कर्मोकी अपेक्षासे नहीं है अघाति कर्मोकी अपेक्षा है। अघाति कर्म पुण्य और पापके भेदसे दो प्रकार है। सो उनमें-से शुभयोगसे पुण्यकर्मका और अशुभसे पापकर्मका आस्रव होता है। शुभ परिणामसे हानेवाले योगको शुभ और अशुभ परिणामसे होनेवाले योगको अशुभ कहते हैं । इस तरह शुभ परिणामके द्वारा पुण्य प्रकृतियोंमें तीव्र अनुभागबन्ध और पाप प्रकृतियोंमें मन्द अनुभागबन्ध होता है। इसीसे शुभ परिणामको पुण्यास्रवका कारण और पापका नाशक कहा है। आ. अमितगतिने कहा है-'किन्हींका कहना है कि आवश्यक कर्म नहीं करना चाहिए क्योंकि उनका करना निष्फल है। यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि आवश्यकका फल प्रशस्त अध्यवसाय है और प्रशस्त अध्यवसायसे संचित कर्म उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे अग्निसे काष्ठ ।' यह कथन आपेक्षिक है। आवश्यक करते समय यदि कर्ताकी वृत्ति केवल बाह्य क्रियाकी ओर ही उन्मुख है तो उस प्रशस्त अध्ययसायसे कर्मोंका विनाश सम्भव नहीं है। ऊपर कहा है कि दो तरह के परिणाम होते हैं स्वद्रव्यप्रवृत्त और परद्रव्यप्रवृत्त । परद्रव्यप्रवृत्त परिणामके भेद ही अशुभ और शुभ परिणाम हैं। बाह्य क्रिया करते हुए भी कर्ताका जो परिणाम आत्मोन्मुख होता है वही परिणामांश संचित कर्म के विनाशमें हेतु होता है । उसके साहचर्यसे परद्रव्य प्रवृत्त शुभ परिणामको भी कर्मक्षयका कारण कह दिया जाता है । वस्तुतः वह पुण्यबन्धका ही कारण होता है ॥१४॥ ___इसीसे यह शंका होती है कि पुण्यबन्ध भी तो वन्ध ही है। अतः जो मुमुक्षु हैबन्धसे छूटना चाहता है उससे पापबन्धकी तरह पुण्यबन्धका भी अनुरोध नहीं करना चाहिए। इसके समाधानमें कहते हैं ___ वीतराग विज्ञानरूप परिणमन करने में असमर्थ मुमुक्षुके लिए पुण्यबन्धसे स्वर्ग आदिकी प्राप्ति उत्तम है, पापबन्ध करके दुर्गतिकी प्राप्ति उत्तम नहीं है । क्योंकि जो बन्ध अर्थात् पुण्यबन्ध शाश्वत लक्ष्मीकी ओर ले जाता है वह बन्ध होनेपर भी सहन करनेके योग्य है ॥१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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