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________________ ५६२ धर्मामृत ( अनगार ) इयन्ति चेव-एतावन्त्येव । तथाहि-एतावानेव सत्य आत्मा यावदिदं स्वयं संवेद्यमानं ज्ञानम् । एवमेतावत्येवमात्मा (-वे सत्या) आशीरितावदेव च सत्यमनुभवनीयमित्यपि योज्यम् ॥११॥ अथ (भेद-)ज्ञानादेव बन्धोच्छेदे सति मोक्षलाभादनन्तं सुखं स्यादित्यनुशास्ति क्रोधाद्यास्रवविनिवृत्तिनान्तरीयकतदात्मभेदविदः । सिध्यति बन्धनिरोधस्ततः शिवं शं ततोऽनन्तम् ।।१२॥ नान्तरीयकी-अविनाभूता । तदित्यादि । स च क्रोधाद्यास्रव आत्मा च तदात्मानौ, तयोर्भेदो विवेकस्तस्य विद् ज्ञानं ततः। उक्तं च _ 'भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन । अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥ [ सम. कल., श्लो. १३१ ] शं-सुखम् ॥१२॥ विशेषार्थ-आत्मामें अनन्त गुण हैं किन्तु उनमें से एक ज्ञान ही ऐसा गुण है जो स्वपर-प्रकाशक है । उसीके द्वारा स्व और परका संवेदन होता है। जो कुछ जाना जाता है वह ज्ञानसे ही जाना जाता है। अतः परमार्थसे आत्मा ज्ञानस्वभाव है, ज्ञान आत्मा ही है और आत्मा ज्ञानस्वरूप है इसलिए ज्ञानको ही मोक्षका कारण कहा है। क्योंकि ज्ञानका अभाव होनेसे अज्ञानीके व्रतादि मोक्षके कारण नहीं होते। तथा आत्माका ज्ञानस्वरूप होना ही अनुभूति है। अतः जितना स्वयं संवेद्यमान ज्ञान है उतना ही आत्मा है, जितना स्वयं संवेद्यमान ज्ञान है उतना ही आगामी इष्ट अर्थकी आकांक्षा है और जितना स्वयं संवेद्यमान ज्ञान है उतना ही सत्य अनुभवनीय है । अर्थात् आत्मा आदि तीनोंका स्रोत ज्ञान ही है, ज्ञानसे ही आत्मा आदिकी सत्यताका बोध होता है। इसलिए मैं ज्ञानमें ही सदा सन्तृप्त हूँ ऐसा ज्ञानी मानता है । ज्ञानके बिना गति नहीं है ॥११॥ आगे कहते हैं कि भेदज्ञानसे ही कर्मबन्धका उच्छेद होनेपर मोक्षकी प्राप्ति होती है और मोक्षकी प्राप्ति होनेसे अनन्त सुखका लाभ होता है क्रोध आदि आस्रवोंकी विशेषरूपसे निवृत्ति अर्थात् संवरके साथ अविनाभावी रूपसे जो उन क्रोधादि आस्रवोंका और आत्माके भेदका ज्ञान होता है उसीसे कर्मोके बन्धका निरोध होता है और बन्धका निरोध होनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है और मोक्षकी प्राप्तिसे अनन्त सुख होता है ॥१२॥ विशेषार्थ-जैसे आत्मा और ज्ञानका तादात्म्य सम्बन्ध होनेसे आत्मा निःशंक होकर । ज्ञानमें प्रवृत्ति करता है। यह ज्ञानक्रिया आत्माकी स्वभावभूत है। अतः निषिद्ध नहीं है उसी तरह आत्मा और क्रोधादि आस्रवका तो संयोग सम्बन्ध होनेसे दोनों भिन्न है किन्तु अज्ञानके कारण यह जीव उस भेदको नहीं जानकर निःशंक होकर क्रोधमें आत्मरूपसे प्रवृत्ति करता है । क्रोधमें प्रवृत्ति करते हुए जो क्रोधादि क्रिया है वह तो आत्मरूप नहीं है । किन्तु वह आत्मरूप मानता है अतः क्रोधरूप, रागरूप और मोहरूप परिणमन करता है। इसी प्रवृत्ति रूप परिणामको निमित्त करके स्वयं ही पुद्गल कर्मका संचय होता है और इस तरह जीव और पुद्गलका परस्पर अवगाहरूप बन्ध होता है। किन्तु वस्तु तो स्वभावमात्र है । 'स्व' का होना स्वभाव है । अतः ज्ञानका होना आत्मा है और क्रोधादिका होना क्रोधादि है । अतः १-२. भ. कु. च.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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