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________________ ५६० धर्मामृत ( अनगार) जानत्तया-स्वपरावभासकरूपतया । चित्-चिद्रूपोऽहं स्वपरावभासकज्ञानस्वभावत्वात् । अचित्परस्वरूपसंचेतनशून्यत्वादचेतनः । कथम् । उपलक्षणमेतत् । तेन द्वेषादिभ्योऽप्येवमात्मा विवेच्यः ॥८॥ एतदेव स्पष्टयितुं दिङ्मात्रमाह ___ नान्तरं वाङ्मनोऽप्यस्मि किं पुनर्बाह्यमङ्गगीः। ___ तत् कोऽङ्गसंगजेष्वैक्यभ्रमो मेऽङ्गाङ्गजादिषु ॥९॥ वाङ्मनः-वाक् च मनश्चेति समाहारः। गणकृतस्यानित्यत्वान्न समासान्तः । अङ्गगी:-देहवाचम् ॥९॥ अथात्मनोऽष्टाङ्गदृष्टिरूपतामाचष्टेयत्कस्मादपि नो बिभेति न किमप्याशंसति क्वाप्युप क्रोशं नाश्रयते न मुह्यति निजाः पुष्णाति शक्तीः सदा। मार्गान्न च्यवतेऽञ्जसा शिवपथं स्वात्मानमालोकते माहात्म्यं स्वमभिव्यनक्ति च तदस्म्यष्टाङ्गसद्दर्शनम् ॥१०॥ कस्मादपि-इहपरलोकादेः । निःशङ्कितोक्तिरियम् । एवं क्रमेणोत्तरवाक्यनिःकांक्षितत्वादीनि सप्त ज्ञेयानि । आशंसति-काङ्क्षति । क्वापि-जुगुप्स्ये द्रव्ये भावे वा। उपक्रोशं-जुगुप्सां, विचिकित्सा मैं स्वसंविदित होनेपर भी परके स्वरूपको जानने में अशक्त होनेसे अचित् राग रूप कैसे हो सकता हूँ ॥८॥ विशेषार्थ-ज्ञान आत्माका स्वाभाविक गुण है। किन्तु राग, द्वेष आदि वैभाविक अवस्थाएँ हैं अतः न ज्ञान राग है और न राग ज्ञान है। ज्ञान तो स्वपर प्रकाशक है किन्तु रागका स्वसंवेदन तो होता है परन्तु उसमें परस्वरूपका वेदन नहीं होता अतः वह अचित् है और ज्ञान चिद्रप है। जो स्थिति रागकी है वही द्वेष, मोह क्रोधादिकी है ॥८॥ इसीको और भी स्पष्ट करते हैं वचन और मन आन्तरिक हैं, वचन अन्तर्जल्प रूप है मन विकल्प है। जब मैं आन्तरिक वचन रूप और मन रूप नहीं हूँ तब बाह्य शरीर रूप और द्रव्य वचन रूप तो मैं कैसे हो सकता हूँ। ऐसी स्थितिमें हे अंग! केवल शरीरके संसर्ग मात्रसे उत्पन्न हुए पुत्रादिकमें एकत्वका भ्रम कैसे हो सकता है ॥९॥ विशेषार्थ-यहाँ मन, वचन, काय और स्त्री-पुत्रादिकसे भिन्नता बतलायी है । भाव वचन और भावमन तो आन्तरिक हैं जब उनसे ही आत्मा भिन्न है तब शरीर और द्रव्य । वचनकी तो बात ही क्या है वे तो स्पष्ट ही पौद्गलिक हैं। और जब शरीरसे ही मैं भिन्नं हूँ तो जो शरीरके सम्बन्ध मात्रसे पैदा हुए पुत्रादि हैं उनसे भिन्न होने में तो सन्देह है ही नहीं । इस तरह मैं इन सबसे भिन्न हूँ ॥९|| ___ आगे आत्माको अष्टांग सम्यग्दर्शन रूप बतलाते हैं जो किसीसे भी नहीं डरता, इस लोक और परलोकमें कुछ भी आकांक्षा नहीं करता, किसीसे भी ग्लानि नहीं करता. न किसी देवताभास आदिमें मग्ध होता है, दा अपनी शक्तियोंको पुष्ट करता है, रत्नत्रयरूप मार्गसे कभी विचलित नहीं होता, और परमार्थसे मोक्षके मार्ग निज आत्मस्वरूपका ही अवलोकन किया करता है तथा जो सदा आत्मीय अचिन्त्य शक्ति विशेषको प्रकाशित किया करता है वह अष्टांग सम्यग्दर्शन मैं ही हूँ ॥१०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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