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________________ धर्मामृत ( अनगार) स्वात्माभिमुखसंवित्तिलक्षणश्रुतचक्षुषाम् । पश्यन् पश्यामि देव त्वां केवलज्ञानचक्षुषा । यच्छ्रुतं यथा एगो मे सस्सदो आदा णाणदंसणलक्खणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ।। संजोगमूलं जीवेण पत्ता दुक्खपरंपरा। तम्हा संजोगसंबंधं सव्वं तिविहेण वोसरे ॥ [ मूलाचार ४८-४९ ] इत्यादि । सेयं ज्ञानाराधना । अभ्यास करना चाहिए जिसमें स्व और परके तथा परमात्माके स्वरूपका वर्णन हो। फिर ध्यानावस्था में उसीका चिन्तन करना चाहिए। यह चिन्तन ही स्वार्थ श्रुतज्ञान भावना है। ग्रन्थकारने उसीको प्रथम स्थान दिया है तभी तो लिखा है कि सदा स्वार्थश्रुतज्ञान भावनामें संलग्न रहनेवाले साधु भी अनादि वासनाके वशीभूत होकर परार्थ शब्दात्मक श्रुतमें भी उद्यत होते हैं, दूसरे साधुओंसे चर्चा वार्ता करते हैं-वार्तालाप करते हैं। यह व्यर्थका वार्तालाप रूप शब्दात्मक श्रुत वस्तुतः सु-श्रुत नहीं है। वही शब्दात्मक श्रुत वस्तुतः सुश्रुत है जिसके द्वारा शुद्ध आत्म-तत्त्वका प्रतिपादन या पृच्छा वगैरह की जाती है। ऐसा ही सुश्रुत मुमुक्षुओंके लिए इष्ट होता है। कहा भी है __ "वही बोलना चाहिए, वही दूसरोंसे पूछना चाहिए, उसीकी इच्छा करनी चाहिए, उसीमें उद्यत होना चाहिए जिसके द्वारा अज्ञानमय रूपको छोड़कर ज्ञानमयरूप प्राप्त होता है।'' पूज्यपाद स्वामीने इष्टोपदेशे में भी कहा है वह महत् ज्ञानमय उत्कृष्ट ज्योति अज्ञानकी उच्छेदक है । अतः मुमुक्षुओंको गुरुजनोंसे उसीके विषयमें पूछना चाहिए, उसीकी कामना करना चाहिए और उसीका अनुभव करना चाहिए। यह साधुओंकी ज्ञानाराधना है।" ज्ञानाराधनाके पश्चात् ग्रन्थकारने चारित्राराधनाका कथन करते हुए अक्ष और मनके नियमनकी बात कही है। पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि (१।१२ ) में 'अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीति अक्ष आत्मा' इस व्युत्पत्तिके अनुसार अक्षका अर्थ आत्मा किया है। उसी व्युत्पत्तिको अपनाकर ग्रन्थकारने अक्षका अर्थ इन्द्रिय किया है। यथायोग्य अपने आचरण और वीर्यान्तराय कर्मका क्षयोपशम होनेपर जिनके द्वारा स्पर्शादि विषयोंको आत्मा जानता है उन्हें अक्ष कहते हैं । वे अक्ष हैं लब्धि और उपयोग रूप स्पर्शन आदि भावेन्द्रियाँ । ज्ञानावरण कर्मके क्षयोपशम विशेषको लब्धि कहते हैं उसके होनेपर ही द्रव्येन्द्रियोंकी रचना होती है। उसके निमित्तसे जो आत्माका परिणाम होता है वह उपयोग है। ये लब्धि और उपयोग दोनों भावेन्द्रिय हैं। __नोइन्द्रियावरण और वीर्यान्तरायका क्षयोपशम होनेपर द्रव्यमनसे उपकृत आत्मा जिसके द्वारा मूर्त और अमूर्त वस्तुको जानता है, गुण दोषका विचार, स्मरण आदिका १. तब्रूयात्तत्परान् पृच्छेत्तदिच्छेत्तत्परो भवेत् । येनाविद्यामयं रूपं त्यक्त्वा विद्यामयं व्रजेत् ॥ २. अविद्याभिदुरं ज्योतिः परं ज्ञानमयं महत् । तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं तद् द्रष्टव्यं मुमुक्षुभिः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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