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________________ सप्तम अध्याय ५४७ अनुबद्धरोगविग्रहसंसक्ततया निमित्तसंसेवी। निष्करुणो निरनुशयो दानवभावं मुनिर्धत्ते ॥ सन्मार्गप्रतिकूलो दुर्मागंप्रकटने पटुप्रज्ञः । मोहेन मोहयन्नपि सम्मोहां भावनां श्रयति । आभिश्च भावनाभिविराधको देवदुर्गतिं लभते । तस्याः प्रच्युतमात्रः संसारमहोदधिं भ्रमति ॥' [ तप इत्यादि । उक्तं च तपसः श्रुतस्य सत्त्वस्य भावनैकत्वभावना चैव । धृतिबलविभावनापि च सैषा श्रेष्ठाऽपि पञ्चविधा ।। दान्तानि (-दि) सभावनया तपसस्तस्येन्द्रियाणि यान्ति वशम् । इन्द्रिययोग्यं च मनः समाधिहेतुं समाचरति ॥ इन्द्रियोग्यमिति इन्द्रियवश्यता परिकर्म । 'श्रुतभावनया सिद्धयन्ति बोधचारित्रदर्शनतपांसि । प्रकृतां सन्धां तस्मात्सुखमव्यथितः समापयति ॥ रात्री दिवा च देवैविभीष्यमाणो भयानकै रूपैः । साहसिकभावरसिको वहति धुरं निर्भेयः सकलाम् ॥ अतिशयतासे हँसते हुए दूसरोंको उद्देश्य करके अशिष्ट कायप्रयोग करना कौत्कुच्य है। इन दोनोंको पुनः-पुनः करना चलशील है। नित्य हास्यकथा कहने में लगना, इन्द्रजाल आदिसे दूसरोंको आश्चर्यमें डालना, इस तरह रागके उद्रेकसे हासपूर्वक वचनयोग और काययोग आदि करना कन्दी भावना है । श्रुतज्ञान, केवली, धर्माचार्य, साधुका अवर्णवाद करनेवाला मायावी किल्विष भावनाको करता है। द्रव्यलाभके लिए, मिष्ट आहारकी प्राप्तिके लिए या सुखके लिए किसीके शरीर में भूतका प्रवेश कराना, वशीकरण मन्त्रका प्रयोग करना, कौतुक प्रदर्शन करना, बालक आदिकी रक्षाके लिए झाड़ना-फूंकना ये सब अभियोग्य भावना हैं । जिसका तप सतत क्रोध और कलहको लिये हुए होता है, जो प्राणियोंके प्रति निर्दय है, दूसरोंको कष्ट देकर भी जिसे पश्चात्ताप नहीं होता वह आसुरी भावनाको करता है । जो कुमार्गका उपदेशक है, सन्मार्गमें दूषण लगाता है, रत्नत्रयरूप मार्गका विरोधी है, मोहमें पड़ा है वह सम्मोह भावनाका कर्ता है। इन भावनाओंसे देवोंमें जो कुदेव हैं उनमें उत्पन्न होता है और वहाँसे च्युत होकर अनन्त संसारमें भ्रमण करता है। संक्लेश रहित भावना भी पाँच हैं-तपभावना-तपका अभ्यास, श्रुतभावनाज्ञानका अभ्यास, सत्त्वभावना अर्थात् भय नहीं करना, एकत्व भावना और धृतिब भावना । तप भावनासे पाँचों इन्द्रियाँ दमित होकर वशमें होती हैं और उससे समाधिमें मन रमता है। किन्तु जो साधु इन्द्रियसुखमें आसक्त होता है वह घोर परीषहोंसे डरकर आराधनाके समय विमुख हो जाता है । श्रुतभावनासे ज्ञान, दर्शन, तप और संयमसे युक्त होता है । मैं अपनेको ज्ञान, दर्शन, तप और संयममें प्रवृत्त करूँ इस प्रकारकी प्रतिज्ञा करके उसको सुखपूर्वक पूर्ण करता है। जिनवचनमें श्रद्धाभक्ति होनेसे भूख-प्यास आदिकी परीषह उसे मार्गसे च्युत नहीं करती। सत्त्वभावनासे देवोंके द्वारा पीड़ित किये जानेपर और भयभीत किये जानेपर भी वह निर्भय रहता है। जो डरता है वह मार्गसे च्युत हो जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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