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________________ सप्तम अध्याय ५४५ खामणं-आचार्यादीनां क्षमाग्राहणम् । खमणं-स्वस्यान्यकृतापराधक्षमा । अणुसट्ठि-निर्यापकाचार्येणाराधकस्य शिक्षणम् । सारणा-दुःखाभिभवान्मोहमुपगतस्य चेतना प्रापणा। कवचे-धर्माद्युपदेशेन दुःखनिवारणम् । समदा-जीवितमरणादिषु रागद्वेषयोरकरणम् । झाणे-एकाग्रचिन्तानिरोधः। लेस्सा- कषायानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिः । फलं-आराधनासाध्यम् । विजहणा-आराधकशरीरत्यागः ॥९८॥ __अथात्रत्येदानींतनसाधुवृन्दारकानात्मनः प्रशममर्थयते ३ गा.१४३ आदिमें बतलाये हैं। इसके बाद परिणाम है । अपने कार्यकी आलोचनाको परिणाम कहते हैं । मैंने स्वपरोपकारमें काल बिताया अब आत्माके ही कल्याणमें मुझे लगना चाहिए इस प्रकारकी चित्तवृत्तिको परिणाम कहते हैं। इस प्रकार समाधिमरणका निर्णय करनेपर क्षपक एक पीछी, एक कमण्डलुके सिवाय शेष परिग्रहका त्याग करता है। उसके बाद श्रिति अधिकार आता है। श्रितिका मतलब है उत्तरोत्तर ज्ञानादिक गुणोंपर आरोहण करना। इसके बाद बुरी भावनाओंको छोड़कर पाँच शुभभावनाओंको भाता है। तब सम्यक् रूपसे काय और कषायको कृश करके सल्लेखना करता है। और अपने संघका भार योग्य शिष्यको सौंपता है । यह दिक् है। उसके बाद संघसे क्षमा-याचना करता है। फिर संघको आगमानुसार उसके कर्तव्यका उपदेश देता है। भगवती आराधनामें यह उपदेश विस्तारसे दर्शाया है। इसके पश्चात् क्षपक अपने संघसे आज्ञा लेकर समाधिके लिए परगणमें प्रवेश करते हैं क्योंकि स्वगणमें रहनेसे अनेक दोषोंकी सम्भावना रहती है। (गा. ४००)। इसके पश्चात् वह निर्यापकाचार्यकी खोज में सैकड़ों योजन तक विहार करते हैं। यदि ऐसा करते हुए मरण हो जाता है तो उन्हें आराधक ही माना जाता है। इस प्रकार गुरुकी खोजमें आये क्षपकको देखकर परगणके मुनि उसके साथ क्या कैसा बरताव करते हैं उसका वर्णन आता है । इस सबको मार्गणा कहते हैं अर्थात् गुरुकी खोज । परोपकार करनेमें तत्पर सुस्थित आचार्यकी प्राप्ति, आचार्यको आत्मसमर्पण, आचार्य द्वारा क्षपककी परीक्षा, आराधनाके लिए उत्तम देश आदिकी खोज । तब आचार्य संघसे पूछते हैं कि हमें इस क्षपकपर अनुग्रह करना चाहिए या नहीं ? पुनः संघसे पूछकर आचार्य क्षपकको स्वीकार करते हैं, तब क्षपक आचार्यके सम्मुख अपने दोषोंकी आलोचना करता है। आलोचना गुण-दोष दोनोंकी की जाती है। तब समाधिमरण साधनेके योग्य वसतिका, और उसमें आराधकके योग्य शय्या दी जाती हैं। तब आराधककी समाधिमें सहायक वगेका चुनाव होता है, उसके बाद आराधकके सामने योग्य विचित्र आहार प्रकट किये जाते हैं कि उसकी किसी आहारमें आसक्ति न रहे। तब क्रमसे आहारका त्याग कराया जाता है । इस तरह वह आहारका त्याग करता है। तब आचार्य आदि क्षमा-प्रार्थना करते हैं और क्षपक भी अपने अपराधोंकी क्षमा माँगता है । तब निर्यापकाचार्य आराधकको उपदेश करते हैं। यदि वह दुःखसे अभिभूत होकर मूच्छित हो जाता है तो उसे होशमें लाते हैं, और धर्मोपदेशके द्वारा दुःखका निवारण करते हैं। तब वह समता भाव धारण करके ध्यान करता है । लेश्याविशुद्धिके साथ आराधक शरीरको त्यागता है । इस तरह भक्त प्रत्याख्यान मरणका चालीस अधिकारोंके द्वारा कथन भगवती आराधना में किया है ॥२८॥ वर्तमान क्षेत्र और कालवर्ती साधुश्रेष्ठोंसे अपनी आत्मामें प्रशमभावकी प्राप्ति की प्रार्थना करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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