SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 600
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम अध्याय ५४३ अथ प्राणान्तिककायत्यागस्य त्रैविध्यमाह भक्तत्यागेङ्गिनीप्रायोफ्यानमरणस्त्रिधा। यावज्जीवं तनुत्यागस्तत्राद्योऽर्हादिभावभाक् ॥९८॥ इङ्गिनीमरणं-स्ववैयावृत्यसापेक्षपरवैयावृत्यनिरपेक्षम् । प्रायोपयानं-स्वपरवैयावृत्यनिरपेक्षम् । प्रायोपगमनमरणमित्यर्थः । अर्कादिभावाः । तद्यथा 'अरिहे लिंगे सिक्खा विणयसमाही य अणियदविहारे । परिणामोवधिजहणा सिदी य तह भावणाओ य ॥ सल्लेहणा दिसा खामणा य अणुसिट्ठि परगणे चरिया । मग्गण सुट्ठिद उवसंपया य परिछा य पडिलेहा ॥ आपुच्छा य पडिच्छणमेगस्सालोयणा य गुणदोसा। सेज्जा संथारो वि य णिज्जवगपयासणा हाणी ॥ पच्चक्खाणं खामण खमणं अणुसट्रि सारणाकवचे। समदाज्झाणे लेस्सा फलं विजहणा य णेयाइं॥' [ भ. आरा., गा. ६७-७० ] अरिहे-अहः सविचारप्रत्याख्यानस्य योग्यः । लिंगे-चिह्नम् । शिक्षा-श्रुताध्ययनम् । विणय--- विनयो मर्यादा ज्ञानादिभावनाव्यवस्था हि ज्ञानादिविनयतया प्रागुक्ता। उपास्तिर्वा विनयः । समाही- १५ समाधानं शुभौपयोगे शुद्धोपयोगे वा मनस एकताकरणम् । अणियदविहारो-अनियतक्षेत्रावासः । परिणामो-स्वकार्यपर्यालोचनम्। उवधिजहणा-परिग्रहपरित्यागः। सिदी-आरोहणम् । भावणाअभ्यासः । सल्लेहणा-कायस्य कषायाणां च सम्यक् कृशीकरणम् । दिसा-एलाचार्यः । खामणा-पर- १८ प्राणोंके छूटने तक किये गये कायत्यागके तीन भेद कहते हैं जीवन पर्यन्त अर्थात् सार्वकालिक कायत्यागके तीन भेद हैं-भक्त प्रत्याख्यान मरण, इंगिनीमरण, प्रायोपगमन मरण । इन तीनों में से प्रथम भक्त प्रत्याख्यानमरणमें अर्हत् लिंग आदि भाव हुआ करते हैं ॥९८॥ विशेषार्थ-जिसमें भोजनके त्यागकी प्रधानता होती है उसे भक्त प्रत्याख्यान मरण कहते हैं। जिसमें साधु अपनी सेवा स्वयं तो करता है किन्तु दूसरेसे सेवा नहीं कराता उस सन्यासमरणको इंगिनीमरण कहते हैं । इस सन्यास मरण करनेवाले साधु मौन रहते हैं। रोगादिककी पीड़ा होनेपर प्रतीकार नहीं करते । न भूख-प्यास, शीत-उष्ण आदि की ही वेदना का प्रतीकार करते हैं। [ भगवती आरा., गा. २०६१ पर्यन्त ]। प्रायोपगमन करनेवाले मुनि तो स्वयं ही अपनी सेवा करते हैं और न दूसरोंको ही करने देते हैं । भक्त प्रत्याख्यानमें स्वयं भी अपनी सेवा कर सकते हैं और दूसरोंसे भी करा सकते हैं। किन्तु प्रायोपगमनमें नहीं। जिनका शरीर सूखकर हाडचाम मात्र रह जाता है वे ही मुनि प्रायोपगमन सन्यास धारण करते हैं, अतः मल, मूत्र आदिका त्याग न स्वयं करते हैं और न दूसरेसे कराते हैं। यदि कोई उन्हें सचित्त पृथ्वी जल आदिमें फेंक दे तो आयु पूर्ण होने तक वहाँ ही निश्चल पड़े रहते हैं। यदि कोई उनका अभिषेक करे या पूजा करे तो उसे न रोकते हैं, न उसपर प्रसन्न होते हैं और न नाराज होते हैं । समस्त परिग्रहको त्यागकर चारों प्रकारके आहारके त्यागको 'प्राय' कहते हैं । जिस मरणमें प्रायका उपगमन अर्थात् स्वीकार हो उसे प्रायोपगमन कहते हैं । इसे पादोपगमन भी कहते हैं। क्योंकि इस संन्यासका इच्छुक मुनि संघसे निकलकर अपने पैरोंसे योग्य देशमें जाता है । इसको प्रायोपवेशन भी कहते हैं क्योंकि इसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy