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________________ सप्तम अध्याय अथ व्युत्सर्गं द्विभेदमुक्त्वा द्विधैव तद्भावनामाह - बाह्यो भक्तादिरुपधिः क्रोधादिश्चान्तरस्तयोः । त्यागं व्युत्सर्गमस्वन्तं मितकालं च भावयेत् ॥९३॥ बाह्यः - आत्मनाऽनुपात्तस्तेन सहैकत्वमनापन्न इत्यर्थः । भक्तादिः - आहारवसत्यादिः । अस्वन्तंप्राणान्तं यावज्जीवमित्यर्थः । मितकालं - मुहूर्त्तादिनियतसमयम् ॥९३॥ अथ व्युत्सर्गशब्दार्थ निरुक्त्या व्यनक्ति बाह्याभ्यन्तरदोषा ये विविधा बन्धहेतवः । यस्तेषामुत्तमः सर्गः स व्युत्सर्गे निरुच्यते ॥१४॥ व्युत्सर्गः विविधानां दोषाणामुत्तमः प्राणान्तिको लाभादिनिरपेक्षश्च सर्गः सर्जनं त्यजनम् ॥९४॥ कारण प्राप्त होते हैं तथा दुःख, उसके कारण और दुःखके कारणोंके भी कारण दूर होते हैं ऐसे शान्तिरूप वचन भी स्वाध्याय रूप है । तथा जयवादरूप वचन इस प्रकारके होते हैं - 'समस्त सर्वथा एकान्त नीतियोंको जीतनेवाले, सत्य वचनोंके स्वामी तथा शाश्वत् ज्ञानानन्दमय जिनेश्वर जयवन्त हों ।' पूजनके प्रारम्भ में जो स्वस्तिपाठ पढ़ा जाता है वह स्वस्तिवचन है । जैसे तीनों लोकोके गुरु जिनश्रेष्ठ कल्याणकारी हों इस तरहके वचनोंको पढ़ना भी स्वाध्याय है । सारांश यह है कि नमस्कार मन्त्र का जाप, स्तुतिपाठ आदि भी स्वाध्यायरूप है क्योंकि पाठक मन लगाकर उनके द्वारा जिनदेव के गुणोंमें ही अनुरक्त होता है । जिन शास्त्रोंमें तत्त्वविचार या आचारविचार है उनका पठन-पाठन तथा उपदेश तो स्वाध्याय है ही । इस प्रकार स्वाध्यायका स्वरूप है ||१२|| ५४१ १. 'जयन्ति निर्जिताशेष-सर्वथैकान्तनीतयः । सत्यवाक्याधिपाः शश्वद् विद्यानन्दा जिनेश्वराः ॥' [ प्रमाणपरीक्षाका मंगल श्लोक ] २. 'स्वस्ति त्रिलोकगुरवे जिनपुङ्गवाय ' ३. अशेषमद्वैतमभोग्य भोग्यं निवृत्तिवृत्त्योः परमार्थकोट्याम् । अभोग्यभोग्यात्मविकल्पबुद्धया निवृत्तिमभ्यस्यतु मोक्षकाङ्क्षी ॥ [ आत्मानुशा. २३५ श्लो. ] आगे व्युत्सर्गके दो भेद कहकर दो प्रकारसे उनकी भावना कहते हैं व्युत्सर्गके दो भेद हैं- बाह्य और आन्तर । जिसका आत्मा के साथ एकत्वरूप सम्बन्ध नहीं है ऐसे आहार, वसति आदिके त्यागको बाह्य व्युत्सर्ग कहते हैं। और आत्मा के साथ एकरूप हुए क्रोधादिके त्यागको आन्तर व्युत्सर्ग कहते हैं । इस व्युत्सर्गकी भावना भी दो प्रकार है - एक जीवनपर्यन्त, दूसरे नियत काल तक । अर्थात् आहारादिका त्याग जीवनपर्यन्त भी किया जाता है और कुछ समय के लिए भी किया जाता है ॥९३॥ आगे निरुक्तिके द्वारा व्युत्सर्ग शब्दका अर्थ कहते हैं कर्मबन्धके कारण जो विविध बाह्य और अभ्यन्तर दोष हैं उनके उत्कृष्ट सर्गको - त्यागको व्युत्सर्ग कहते हैं ||२९४ || विशेषार्थ - व्युत्सर्ग शब्द वि + उत् + सर्गके मेलसे बना है । 'वि' का अर्थ होता है। विविध, उत्का उत्कृष्ट और सर्गका अर्थ है त्याग । कर्मबन्धके कारण बाह्य दोष हैं स्त्रीपुत्रादिका सम्बन्ध, और आन्तर कारण है ममत्व भाव आदि । इन विविध दोषों को उत्तम त्याग अर्थात् जीवनपर्यन्तके लिए लाभ आदिकी अपेक्षासे रहित त्याग व्युत्सर्ग है । कहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only ३ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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