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________________ सप्तम अध्याय ५३३ तेषां-मुक्त्युद्युक्तानाम् । तत्पथघातिनी–मुक्तिमार्गोच्छेदिनी । अंगवृत्या-कायचेष्टया। अन्य(योग्य ) द्रव्यनियोजनेन-योग्यौषधान्नवसत्यादिप्रयोगेण । विकर्षति-दूरीकरोति ॥७९॥ अथ सार्मिकविपदुपेक्षिणो दोषं प्रकाश्य वैयावृत्यस्य तपोहृदयत्वं समर्थयते सधर्मापदि यः शेते स शेते सर्वसंपदि । वैयावृत्यं हि तपसो हृदयं ब्रुवते जिनाः ॥८॥ हृदयं-अन्तस्तत्त्वम् ॥८०।। • भूयोऽपि तत्साध्यमाह समाध्याध्यानसानाथ्य तथा निविचिकित्सता। सधर्मवत्सलत्वादि वैयावृत्येन साध्यते ॥८॥ साध्यते-जन्यते ज्ञाप्यते वा । उक्तं च 'गुणाढये पाठके साधौ कृशे शैक्षे तपस्विनि । सपक्षे समनुज्ञाते संघे चैव कुले गणे॥ शय्यायामासने चोपगृहीते पठने तथा। आहारे चौषधे कायमलोज्झस्थापनादिषु ।। मारीदुर्भिक्षचौराध्वव्यालराजनदीषु च । वैयावृत्यं यतेरुक्तं सपरिग्रहरक्षणम् ॥ बालवृद्धाकुले गच्छे तथा गुर्वादिपञ्चके । वैयावृत्यं जिनरुक्तं कर्तव्यं स्वशक्तितः ॥' [ अचेतनकृत कोई विपत्ति आनेपर, उसे अपने ही ऊपर आयी हुई जानकर शारीरिक चेष्टासे अथवा संयमके अविरुद्ध औषधी, आहार, वसति आदिके द्वारा शान्त करता है, अथवा मिथ्या-दर्शन, मिथ्याज्ञान, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूपी विषको प्रभावशाली शिक्षाके द्वारा दूर करता है वह महात्मा इन्द्र, अहमिन्द्र, चक्रवर्ती आदि पदोंकी तो गिनती ही क्या, निश्चयसे तीर्थकर पदके भी योग्य होता है ।।७।। साधर्मियोंपर आयी विपत्तियोंकी उपेक्षा करनेवालेके दोष बतलाकर इस बातका समर्थन करते हैं कि वैयावृत्य तपका हृदय है जो साधर्मीपर आपत्ति आनेपर भी सोता रहता है-कुछ प्रतीकार नहीं करता, वह समस्त सम्पत्तिके विषयमें भी सोता है, अर्थात् उसे कोई सम्पत्ति प्राप्त नहीं होती। क्योंकि अर्हन्त देवने वैयावृत्यको बाह्य और अभ्यन्तर तपोंका हृदय कहा है अर्थात् शरीरमें जो स्थिति हृदयकी है वही स्थिति तपोंमें वैयावृत्यकी है ।।८०॥ पुनः वैयावृत्यका फल बतलाते हैं वैयावृत्यसे एकाग्रचिन्ता निरोध रूप ध्यान, सनाथपना, ग्लानिका अभाव तथा साधर्मीवात्सल्य आदि साधे जाते हैं ।।८१॥ विशेषार्थ-किसी साधुपर ध्यान करते समय यदि कोई उपसर्ग या परीषह आ जाये तो उसे दूर करनेपर साधुका ध्यान निर्विघ्न होता है । इससे वह सनाथता अनुभव करता है कि उसकी भी कोई चिन्ता करनेवाला है। इसी तरह रोगी साधुकी सेवा करनेसे ग्लानि दूर होकर निर्विचिकित्सा अंगका पालन होता है। इन सबसे साधमिवात्सल्य तो बढ़ता ही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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