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________________ २ धर्मामृत (अनगार ) एतच्च सङ्गत्यागादावपि यथास्वं व्याख्यातव्यं सकलकार्याणामन्तरङ्गबहिरङ्ग - कारणद्वयाधीनजन्मत्वात् । उदीर्णंसुदृशः--- अप्रतिपातवृत्त्या प्रवृत्तसम्यक्त्वाः । सर्वशः - सर्वं सर्विकया संगं दशधा बाह्यं चतुर्दशधा - ३ म्यन्तरं च । व्याख्यास्यते च द्वयोरपि संगस्तद्ग्रन्थानबहिरित्यत्र । [ ४।१०५ ] सर्वशः इत्यत्र शसा त्यागस्य प्राशस्त्यं द्योत्यते । तदुक्तम् अर्थिभ्यस्तृणवद् विचिन्त्य विषयान् कश्चिच्छ्रियं दत्तवान् पापं तामवितर्पिणीं विगणयन्नादात्परस्त्यक्तवान् । प्रागेवाकुशलां विमृश्य सुभगोऽप्यन्यो न पर्यंग्रहीदित्येते विदितोत्तरोत्तरवराः सर्वोत्तमास्त्यागिनः ॥ [ आत्मानु. १०२ ] ६ त्याग, निरन्तर सम्यक् श्रुतमें तत्परता, इन्द्रिय और मनका नियमन, शुद्धात्माका ध्यान और समस्त कर्मोंका निर्मूलन, इनके साथ भी लगा लेना चाहिए; क्योंकि समस्त कार्य अन्तरंग और बहिरंग कारणोंसे ही उत्पन्न होते हैं । उनमें से सम्यक्त्व के अन्तरंग कारण निकट भव्यता आदि हैं और बाह्य कारण उपदेशक आदि हैं। कहा भी है- निकट भव्यता सम्यक्त्वके प्रतिबन्धक मिध्यात्व आदि कर्मोंका यथायोग्य उपशम, क्षय या क्षयोपशम, उपदेश आदि को ग्रहण कर सकने की योग्यता, संज्ञित्व और परिणामोंकी शुद्धता ये सम्यग्दर्शनके अन्तरंग कारण हैं और उपदेशक आदि बाह्य कारण हैं । इसी तरह परिग्रह त्याग आदिके भी अन्तरंग और बहिरंग कारण जानने चाहिए । सम्यग्दर्शनमें आगत दर्शन शब्द दृश् धातुसे निष्पन्न हुआ है । यद्यपि दृश् धातुका प्रसिद्ध अर्थ देखना है किन्तु यहाँ श्रद्धान अर्थ लिया गया है क्योंकि धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं । कहा भी है' - 'विद्वानोंने निपात, उपसर्ग और धातुको अनेक अर्थवाला माना है ।' कहा जा सकता है कि प्रसिद्ध अर्थका त्याग क्यों किया ? उसका उत्तर है कि सम्यग्दर्शन मोक्षका कारण है अतः तत्त्वार्थका श्रद्धान आत्माका परिणाम है । वह मोक्षका कारण हो सकता है क्योंकि वह भव्य जीवोंके ही सम्भव है । किन्तु देखना तो आँखों का काम है, और आँखें तो चौइन्द्रिय से लेकर सभी संसारी जीवोंके होती हैं अतः उसे मोक्षका मार्ग नहीं कहा जा सकता । अस्तु, सम्यग्दर्शनमें जो सम्यक् शब्द है उसका अर्थ प्रशंसा आदि है । तत्त्वार्थसूत्रकारने भी सम्यग्दर्शनका लक्षण इसी प्रकार कहा है-तत्त्वार्थ के श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं । दर्शन मोहनीय कर्मका उपशमादि होने पर आत्मामें जो शक्ति विशेष प्रकट होती है जिसके होने से ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहा जाता है, उस तत्त्वार्थश्रद्धानरूप परिणतिको दर्शन कहते हैं । आगम में मुमुक्षुओंके लिए सहन करने योग्य परीषहों और उपसर्गोंका कथन किया है उन्हें जो धैर्य आदि भावना विशेषके साहाय्य से सहन करते हैं । अर्थात् अपने-अपने निमित्तों के मिलने पर आये हुए परीषहों और उपसर्गों से महासात्त्विक और वज्रकाय होने के कारण अभिभूत नहीं होते हैं, तथा समस्त बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहको छोड़ देते हैं । चेष्टा और उपयोगरूप वृत्तिके द्वारा ममकार और अहंकार ( मैं और मेरा ) से जीव उसमें आसक्त होता है इसलिए परिग्रहको संग कहते हैं । सर्वशः शब्द में प्रयुक्त प्रशंसार्थक शस् प्रत्ययसे त्यागकी उत्तमत्ता प्रकट होती है । क्योंकि सभी मुक्तिवादी मतोंने समस्त परिग्रहके त्यागको मुक्तिका अंग अवश्य माना है । उसके बिना मुक्ति नहीं हो सकती । इस उक्त कथन १. निपाताश्चोपसर्गाश्च धातवश्चेति ते त्रयः । अनेकार्थाः स्मृताः सद्भिः पाठस्तेषां निदर्शनम् । Jain Education. International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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