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________________ सप्तम अध्याय ५३१ mara.१८ अथ तपोविनयमाह यथोक्तमावश्यकमावहन सहन् परोषहानग्रगुणेषु चोत्सहन् । भजस्तपोवृद्धतपांस्यहेलयन् तपोलघूनेति तपोविनीतताम् ॥७॥ आवश्यकं अवशस्य कर्म व्याध्यादिपरवशेनापि क्रियत इति कृत्वा । अथवा अवश्यस्य रागादिभिरनायत्तीकृतस्य कर्म इति विगृह्य 'द्वन्द्वमनोज्ञादेः' इत्यनेन वुन् । अग्रगुणेषु-उत्तरगुणेष्वातपनादिषु संयमविशेषेषु वा उपरिमगुणस्थानेषु वा। तपोवृद्धाः-तपांसि वृद्धानि अधिकानि येषां न पुनस्तपसा वृद्धा इति, ह अलुक्प्रसंगात् । अहेडयन्-अनवजानन् । स्वस्मात्तपसा हीनानपि यथास्वं संभावयन्नित्यर्थः ॥७५॥ "अथ विनयभावनाया फलमाह ज्ञानलाभार्थमाचारविशुद्धययं शिवाथिभिः। आराधनादिसंसिद्धये कार्य विनयभावनम् ॥७६॥ स्पष्टम् ॥७६॥ अथाराधनादीत्यत्रादिशब्दसंगृहीतमर्थजातं व्याकर्तुमाहद्वारं यः सुगतेगंणेशगणयोर्यः कामणं यस्तपो वृत्तज्ञानऋजुत्वमार्दवयशःसौचित्यरत्नार्णवः। यः संक्लेशदवाम्बुदः श्रुतगुरुद्योतकदीपश्च यः स क्षेप्यो विनयः परं जगदिनाज्ञापारवश्येन चेत् ॥७७॥ सुगते:-मोक्षस्य । द्वारं सकलकर्मक्षयहेतुत्वात् । स्वर्गस्य वा प्रचुरपुण्यास्रवनिमित्तत्वात् । कार्मणंवशीकरणम् । सौचित्यं-गुर्वाद्यनुग्रहेण वैमनस्यनिवृत्तिः। संक्लेशः-रागादि । श्रुतं-आचारोक्तक्रमज्ञत्वं विशेषार्थ-मूलाचारमें भी कहा है जो अपनेसे बड़े दीक्षा गुरु, शास्त्रगुरु और विशिष्ट तपस्वी हैं, तथा जो तपसे, गुणसे और अवस्थासे छोटे हैं, आर्यिकाएँ हैं, गृहस्थ हैं । उन सबमें भी साधुको प्रमाद छोड़कर यथा योग्य विनय करना चाहिए ॥७४।। तपोविनयका स्वरूप कहते हैं रोग आदि हो जानेपर भी जिनको अवश्य करना होता है अथवा जो कर्म रागादिको दूर करके किये जाते हैं उन पूर्वोक्त आवश्यकोंको जो पालता है, परीषहोंको सहता है, आतापन आदि उत्तर गुणोंमें अथवा ऊपरके गुणस्थानों में जानेका जिसका उत्साह है, जो अपनेसे तपमें अधिक हैं उन तपोवृद्धोंका और अनशन आदि तपोंका सेवन करता है तथा जो अपनेसे तपमें हीन हैं उनकी भी अवज्ञा न करके यथायोग्य आदर करता है वह साधु तप विनयका पालक है ॥७॥ आगे विनय भावनाका फल कहते हैं मोक्षके अभिलाषियोंको ज्ञानकी प्राप्ति के लिए, पाँच आचारोंको निर्मल करनेके लिए और सम्यग्दर्शन आदिको निर्मल करना आदि रूप आराधना आदिकी सम्यक् सिद्धिके लिए विनयको बराबर करना चाहिए ।।७६॥ ऊपरके श्लोकमें 'आराधनादि में आये आदि शब्दसे गृहीत अर्थको कहते हैं जो सुगतिका द्वार है, संघके स्वामी और संघको वशमें करनेवाली है, तप, चारित्र, ज्ञान, सरलता, मार्दव, यश और सौचित्यरूपी रत्नोंका समुद्र है। संक्लेशरूपी दावाग्निके लिए मेघके तुल्य है, श्रुत और गुरुको प्रकाशित करनेके लिए उत्कृष्ट दीपकके समान है। ऐसी विनयको भी यदि आत्मद्वेषी इसलिए बुरी कहते हैं कि विनयी पुरुष तीनों लोकोंके नाथकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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