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________________ सप्तम अध्याय ५२१ अवसन्नः यो जिनवचनानभिज्ञो मुक्तचारित्रभारो ज्ञानचरणभ्रष्टः करणालसश्च स्यात् । उक्तं च 'जिणवयणमयाणतो मुक्कधुरो णाणचरणपरिभट्ठो। करणालसो भवित्ता सेवदि ओसण्णसेवाओ।' [ कुशील:-यः क्रोधादिकषायकलुषितात्मा व्रतगुणशीलैः परिहीणः संघस्यानयकारी च स्यात् । उक्तं च 'कोहादिकलुसिदप्पा वयगुणसीलेहि चावि परिहीणो। संघस्स अणयकारी कुसीलसमणोत्ति णायव्वो ॥[ पर्यायवर्जनात्-अपरिमितापराधत्वेन सर्वपर्यायमपहाय इत्यर्थः॥५५॥ अथ परिहारस्य लक्षणं विकल्पांश्चाह विधिवद्रात्यजनं परिहारो निजगणानुपस्थानम् । सपरगणोपस्थानं पारश्चिकमित्ययं त्रिविधः ॥५६॥ निजगणानुपस्थान-प्रमादादन्यमुनिसंबन्धिनमृषि छात्रं गृहस्थं वा परपाषण्डिप्रतिबद्धचेतना- १२ चेतनद्रव्यं वा परस्त्रियं वा स्तेनयतो मुनीन् प्रहरतो वा अन्यदप्येवमादि विरुद्धाचरितमाचरतो नवदशपूर्व पार्श्वस्थ मुनि इन्द्रिय कषाय और पंचेन्द्रियोंके विषयोंसे पराभूत होकर चारित्रको तृणके समान मानता है। ऐसे चारित्रनष्ट मुनिको पार्श्वस्थ कहते हैं। जो मुनि उनके पास रहते हैं वे भी वैसे ही बन जाते हैं। जो साधु वैद्यक, मन्त्र और ज्योतिषसे आजीविका करता है तथा राजा आदिकी सेवा करता है वह संसक्त है। व्यवहारसूत्र (उ. ३) में कहा है कि संसक्त साधु नटकी तरह बहुरूपिया होता है । पार्श्वस्थोंमें मिलकर पार्श्वस्थ-जैसा हो जाता है, दूसरों में मिलकर उन-जैसा हो जाता है इसीसे उसे संसक्त नाम दिया है। जो गुरुकुलको छोड़कर एकाकी स्वच्छन्द विहार करता है उसे स्वच्छन्द या यथाच्छन्द कहते हैं। कहा है-'आचार्यकुलको छोडकर जो साध एकाकी विहार करता है वह जिनवचनका दूषक मृगके समान आचरण करनेवाला स्वच्छन्द कहा जाता है।' भगवती आराधना (गा. १३१०)में कहा है जो मुनि साधुसंघको त्याग कर स्वच्छन्द विहार करता है और आगमविरुद्ध आचारोंकी कल्पना करता है वह स्वच्छन्द है । श्वेताम्बर परम्परामें इसका नाम यथाच्छन्द है। छन्द इच्छाको कहते हैं। जो आगमके विरुद्ध इच्छानुकूल प्रवृत्ति करता है वह साधु यथाच्छन्द है। जो जिनागमसे अनजान है, ज्ञान और आचरणसे भ्रष्ट है, आलसी है उस साधुको अवसन्न कहते हैं। व्यवहारभाष्यमें कहा है कि जो साधु आचरणमें प्रमादी होता है, गुरुकी आज्ञा नहीं मानता वह अवसन्न है। तथा जो साधु कषायसे कलुषित और व्रत, गुण और शीलसे रहित होता है तथा संघका आदेश नहीं मानता वह कुशील है । इन पाँच प्रकारके साधुओंको पुरानी दीक्षा देकर नयी दीक्षा दी जाती है यह मूल प्रायश्चित्त है ॥५५॥ परिहार प्रायश्चित्तका लक्षण और भेद कहते हैं शास्त्रोक्त विधानके अनुसार दिवस आदिके विभागसे अपराधी मुनिको संघसे दूर कर देना परिहार प्रायश्चित्त है। इसके तीन भेद हैं-निजगुणानुपस्थान, सपरगणोपस्थान और पारंचिक ॥५६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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