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________________ ५१६ धर्मामृत ( अनगार) स्मरणपथमनुसरन्ती प्रायो नागांसि मे विपुण्यस्य । सर्व छेदः समजनि ममेति वालोचयेदौघी॥ प्रव्रज्यादिसमस्तं क्रमेण यद्यत्र येन भावेन । सेवितमालोचयतः पादविभागी तथा तत्तत् ॥ भ. आ. गा. ५३३-३५ का रूपान्तर] ॥४४॥ अथालोचनां विना महदपि तपो न संवरसहभाविनी निर्जरां करोति । कुतायामपि चालोचनायां विहितमनाचरन्न दोषविजयी स्यादतः सर्वदालोच्यं गुरूक्तं च तदुचितमाचर्यमिति शिक्षणार्थमाह सामौषधवन्महदपि न तपोऽनालोचनं गुणाय भवेत। मन्त्रवदालोचनमपि कृत्वा नो विजयते विधिमकुर्वन् ॥४५॥ सामौषधवत्-सामे दोषे प्रयुक्तमौषधं यथा । यथाहुः 'यः पिबत्यौषधं मोहात् सामे तीव्ररुजि ज्वरे । प्रसुप्तं कृष्णसर्प स कराग्रेण परामृशेत् ॥' [ ] गुणाय-उपकाराय । मंत्रवत्-पञ्चाङ्गं गुप्तभाषणं यथा। विधिः--विहिताचरणम् ।।४५॥ अथ सदगुरुदत्तप्रायश्चित्तोचितचित्तस्य दीप्त्यतिशयं दृष्टान्तेनाचष्टे यथादोषं यथाम्नायं दत्तं सद्गुरुणा वहन् । रहस्यमन्तात्युच्चैः शुद्धादर्श इवाननम् ॥४६॥ रहस्य-प्रायश्चित्तम् ।।४६॥ व्रतका एकदेश छेद किया है वह पदविभागी अर्थात् विशेष आलोचना करता है। मुझ पापीको प्रायः अपराधोंका स्मरण नहीं रहा। अतः मेरा समस्त व्रत छिन्न हो गया ऐसा मानकर औधी आलोचना करना चाहिए। समस्त प्रव्रज्या आदिमें क्रमसे जहाँ जिस भावसे दोष लगा है उसकी आलोचना करनेवालेके पद विभागी आलोचना होती है' ।।४०-४४॥ आलोचनाके बिना महान् भी तप संवरके साथ होनेवाली निर्जराको नहीं करता। और आलोचना करनेपर भी गुरु जो प्रायश्चित्त बतावें उसे न करनेवाला दोषोंसे मुक्त नहीं होता । इसलिए सर्वदा आलोचना करना चाहिए और गुरु जो कहें वह करना चाहिए, यह शिक्षा देते हैं जैसे बिना विचारे सामदोषसे युक्त तीव्र ज्वरमें दी गयी महान् भी औषध आरोग्यकारक नहीं होती, उसी प्रकार आलोचनाके बिना एक पक्ष का उपवास आदि महान तप.भी उपकारके लिए अर्थात् संवरके साथ होनेवाली निर्जराके लिए नहीं होता। तथा जैसे राजा मन्त्रियोंसे परामर्श करके भी उनके द्वारा दिये गये परामर्शको कार्यान्वित न करनेपर विजयी नहीं होता, उसी प्रकार आलोचना करके भी विहित आचरणको न करनेवाला साधु दोषोंपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता ॥४५॥ जिसका चित्त सद्गुरुके द्वारा दिये गये प्रायश्चित्तमें रमता है उसको अतिशय चमक प्राप्त होती है यह बात दृष्टान्त द्वारा कहते हैं___सद्गुरुके द्वारा दोषके अनुरूप और आगमके अनुसार दिये गये प्रायश्चित्तको अपनेमें धारण करनेवाला तपस्वी वैसे ही अत्यन्त चमकता है जैसे निर्मल दर्पणमें मुख चमकता है ॥४६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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