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________________ सप्तम अध्याय ४९३ नियमक्रिया-विहिताचरणनिषिद्धपरिवर्जनविधानम् ॥३॥ पुनरपि शास्त्रान्तरप्रसिद्धं तपोलक्षणमन्वाख्याय तद्भेदप्रभेदसूचनपुरस्सरं तदनुष्ठानमुपदिशति संसारायतनान्निवृत्तिरमृतोपाये प्रवृत्तिश्च या तवृत्तं मतमौपचारिकमिहोद्योगोपयोगी पुनः। निर्मायं चरतस्तपस्तदुभयं बाह्यं तथाभ्यन्तरं षोढाऽत्राऽनशनादि बाह्यमितरत् षोठैव चेतुं चरेत् ॥४॥ - संसारायतनानुबन्धात् तत्कारणाच्च मिथ्यादर्शनादित्रयात् । उक्तं च 'स्युमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राणि समासतः। बन्धस्य हेतवोऽन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तरः ॥' [ तत्त्वानु., ८ श्लो. ] 'बन्धस्य कार्य संसारः सर्वदुःखप्रदोऽङ्गिनाम् । द्रव्यक्षेत्रादिभेदेन स चानेकविधः स्मृतः ॥' [ तत्त्वानु., ७ श्लो.] मनके नियमोंका अनुष्ठान है करने योग्य आचरणको करनेका और न करने योग्य आचरणको न करनेका जो विधान है इसीका नाम तप है ॥३॥ विशेषार्थ-पूज्यपाद स्वामीने सर्वार्थसिद्धि टीकामें तपका अर्थ यही किया है कि जो कर्मोंके क्षयके लिए तपा जाये वह तप है। धूप आदिमें खड़े होकर तपस्या करनेका भी उद्देश्य कर्मोकी निर्जरा ही है किन्तु उसके साथमें इन्द्रिय और मनका निरोध आवश्यक है । उसके बिना बाह्य तप व्यर्थ है ॥३॥ फिर भी अन्य शास्त्रोंमें प्रसिद्ध तपका लक्षण कहकर उसके भेद-प्रभेदोंकी सूचनाके साथ उसको पालनेका उपदेश देते हैं संसारके कारणसे निवृत्ति और मोक्षके उपायमें जो प्रवृत्ति है वह औपचारिक अर्थात् व्यावहारिक चारित्र है। तथा मायाचारको छोड़कर साधु इस औपचारिक चारित्रमें जो उद्योग करता है और उसमें अपना उपयोग लगाता है वह भगवती आराधना शास्त्रके उपदेशानुसार तप है। उस तपके दो भेद हैं-बाह्य और आभ्यन्तर । अनशन आदि छह बाह्य तप हैं और छह ही अभ्यन्तर तप हैं। अभ्यन्तर तपको बढ़ानेके लिए ही बाह्य तप करना चाहिए ॥४॥ ___ विशेषार्थ-द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन और भावपरिवर्तन रूप संसारका कारण बन्ध है । यहाँ बन्धसे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र लेना चाहिए, क्योंकि ये हो बन्धके कारण हैं अतः कारणमें कार्यका उपचार करके बन्धके कारणोंको बन्ध कहा है। कहा है-'बन्धका कार्य संसार है, वह प्राणियोंको सब दुःख देता है । तथा वह द्रव्य क्षेत्र आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है।' संक्षेपमें बन्धके कारण मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र हैं। अन्य सब इन्हींका विस्तार है। भगवती आराधनामें तपका स्वरूप इस प्रकार कहा है-'यह कर्तव्य है और १. 'कायव्वमिणमकायव्वं इदि णादूण होदि परिहारो। तं चेव हवदि णाणं तं चेव य होदि सम्मत्तं ॥ चरणम्मि तम्मि जो उज्जमो य आउज्जणा य जा होदि । सो चेव जिणेहि तओ भणिओ असढं चरंतस्स' ॥-गा. ९-१० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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