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________________ षष्ठ अध्याय ४८९ अदर्शनसहनमाह-- महोपवासादिजुषां मृषोद्याः, प्राक प्रातिहार्यातिशया न होले। किंचित्तथाचार्यपि तद्वर्थषा, निष्ठेत्यसन सदृगदर्शनासट् ॥११०॥ मुषोद्याः-मिथ्या कथ्यते । प्राक्-पूर्वस्मिन् काले । ईक्षे-पश्याम्यहम् । असन्-अभवन् । सदृक्-दर्शनविशुद्धियुक्तः । अदर्शनासट्-अदर्शनपरीषहस्य सहिता स्यादित्यर्थः ।।११०॥ अदर्शनपरीषहके सहनको कहते हैं पूर्वकालमें पक्ष-मास आदिका उपवास करनेवालोंको प्रातिहार्य आदि अतिशय होते थे यह कथन मिथ्या है, क्योंकि महोपवास आदि करनेपर भी मुझे तो कुछ होता नहीं दिखाई देता। अतः यह तपस्या आदि करना व्यर्थ है। इस प्रकारकी भावना जिसे नहीं होती वह सम्यग्दृष्टि अदर्शनपरीषहका सहन करनेवाला है ॥११०॥ विशेषार्थ-आशय यह है कि जो साधु ऐसा विचार नहीं करता कि मैं दुष्कर तप करता हूँ, वैराग्य भावनामें तत्पर रहता हूँ, सकल तत्त्वोंको जानता हूँ, चिरकालसे व्रती हूँ फिर भी मुझे आज तक किसी ज्ञानातिशयकी प्राप्ति नहीं हुई। महोपवास आदि करनेवालोंके प्रातिहार्य विशेष प्रकट हुए ऐसा कहना कोरी बकवाद है। यह दीक्षा व्यर्थ है, व्रतोंका पालन निष्फल है, उस साधुके सम्यग्दर्शन विशुद्धिके होनेसे अदर्शनपरीषहका सहन होता है। . ___ यहाँ परीषहोंके सम्बन्धमें विशेष प्रकाश डाला जाता है ये सभी परीषह कर्मके उदयमें होती हैं । प्रज्ञा और अज्ञान परीषह ज्ञानावरणके उदयमें होती हैं। अदर्शन परीषह दर्शन मोहके उदयमें और अलाभ परीषह लाभान्तरायके उदयमें होती है। मान कषायके उदयमें नाग्न्य, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार पुरस्कार परीषह होती हैं। अरति मोहनीयके उदयमें अरतिपरीषह और वेद मोहनीयके उदयमें स्त्री परीषह होती है । वेदनीयके उदयमें क्षुधा, प्यास, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल । परीषह होती हैं । एक जीवके एक समयमें एकसे लेकर उन्नीस परीषह तक होती हैं क्योंकि शीत और उष्णमें से एक समयमें एक ही परीषह होती है तथा शय्या, चर्या और निषद्यामें-से एक ही परोषह होती है । प्रज्ञा और अज्ञान परीषह एक साथ हो सकती हैं क्योंकि श्रुतज्ञानकी अपेक्षा प्रज्ञाका प्रकर्ष होनेपर अवधिज्ञान आदिका अभाव होनेसे अज्ञान परीषह हो सकती है । अतः इन दोनोंके एक साथ होने में विरोध नहीं है। ___ मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन सात गुणस्थानोंमें सब परीषह होती हैं। अपूर्वकरणमें अदर्शन परीषह के बिना इक्कीस परीषह होती हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके सवेद भागमें अरति परीषहके बिना बीस परीषह होती हैं। और अनिवृत्तिकरणके अवेद भागमें स्त्री परीषह न होनेसे उन्नीस होती हैं। उसी गुणस्थानमें मानकषायके उदयका क्षय होनेपर नाग्न्य, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार पुरस्कार परीषह नहीं होतीं । उनके न होनेसे अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म साम्पराय, उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय इन चार गुणस्थानोंमें चौदह परीषद होती हैं। क्षीण कषायमें प्रज्ञा, अज्ञान और अलाभ परीषह नष्ट हो जाती हैं। सयोगकेवलीके घातिकर्म नष्ट हो जानेसे अनन्त चतुष्टय प्रकट हो जाते हैं अतः अन्तराय कर्मका अभाव होनेसे निरन्तर शुभ पुद्गलोंका संचय होता रहता है। इसलिए वेदनीयकर्म विद्यमान होते हुए भी घातिकर्मोंकी सहायताका बल नष्ट हो जानेसे अपना कार्य करनेमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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