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________________ षष्ठ अध्याय ४८७ ९ १२ १५ अथ तुणस्पर्शसहनमाह तृणादिषु स्पर्शखरेषु शय्यां भजन्निषद्यामथ खेदशान्त्यै। संक्लिश्यते यो न तदतिजातखर्जुस्तृणस्पर्शतितिक्षुरेषः ।।१०५।। तृणादिषु-शुष्कतृणपत्रभूमिकटफलकशिलातलादिषु । खेदशान्त्यै-व्याधि-मार्गगमन-शीतोष्णजनितश्रमापनोदार्थम् । संक्लिश्यते-दुःखं चिन्तयन्ति (-ति) ॥१०५॥ अथ मलपरीषहसहनमाह रोमास्पदस्वेदमलोत्थसिध्मप्रायात्य॑वज्ञातवपुः कृपावान् । केशापनेतान्यमलाग्रहीता नैर्मल्यकामः क्षमते मलोमिम् ॥१०६॥ । सिध्मप्रायाः--दुभित्तक-कच्छु-दद्रु-प्रमुखाः। कृपावान्-बादरनिगोदप्रतिष्ठितजीवदयार्थमुद्वर्तनं जलजन्त्वादिरक्षार्थं च स्नानं त्यजन्निति भावः। केशापनेता--एतेन केशलुञ्चनेन तत्संस्काराकरणे च महाखेदः संजायते इति तत्सहनमपि मलधारणेऽन्तर्भवतीत्युक्तं स्यात् । अन्यमलाग्रहीता--परमलोपचयत्यागीत्यर्थः । नैर्मल्यकामः--कर्ममलपङ्कापनोदार्थी ॥१०६।। अथ सत्कारपुरस्कारपरीषहजयमाह-- तुष्येन्न यः स्वस्य परैः प्रशंसया श्रेष्ठेषु चाग्रे करणेन कर्मसु । आमन्त्रणेनाथ विमानितो न वा रुष्येत्स सत्कारपुरस्क्रियोमिजित् ॥१०॥ . परैः--उत्कृष्टपुरुषैः । श्रेष्ठेषु--नन्दीश्वरादिपर्वयात्राद्यात्मकक्रियादिषु ॥१०७॥ तृणस्पर्शपरीषहके सहनको कहते हैं सूखे तृण, पत्ते, भूमि, चटाई, लकड़ीका तख्ता, पत्थरकी शिला आदि ऐसे स्थानोंपर जिनका स्पर्श कठोर या तीक्ष्ण हो, रोग या मार्गमें चलने आदिसे उत्पन्न हुई थकानको दूर करनेके लिए सोनेवाला या बैठनेवाला जो साधु शुष्क तृण आदिसे होनेवाली पीड़ाके कारण खाज उत्पन्न होनेपर भी दुःख नहीं मानता, वह साधु तृणस्पर्शपरीषहको सहनेवाला है ॥१०५॥ मलपरीषह सहनको कहते हैं रोमोंसे निकलनेवाले पसीनेके मैलसे उत्पन्न हुए दाद-खाज आदिकी पीड़ा होनेपर जो शरीरकी परवाह नहीं करता, जिसने बादर निगोद प्रतिष्ठित जीवोंपर दया करनेके भावसे उद्वर्तनका और जलकायिक जीवोंकी रक्षाके लिए स्नानका त्याग किया है, केशोंका लोंच करता है, अन्य मलको ग्रहण नहीं करता, किन्तु कर्मरूपी मलको ही दूर करना चाहता है वह साधु मलपरीषहको सहता है ॥१०६|| विशेषार्थ-केशोंका लोंच करनेमें और उनका संस्कार न करनेपर महान् खेद होता है अतः उसका सहना भी मलपरीषहमें आता है ॥१०६।। सत्कार-पुरस्कारपरीषहजयको कहते हैं जो बड़े पुरुषों के द्वारा अपनी प्रशंसा किये जानेसे और उत्तम कार्यों में आगे किये जानेसे अथवा आमन्त्रणसे प्रसन्न नहीं होता और अवज्ञा करनेसे रुष्ट नहीं होता वह सत्कार पुरस्कार परीषहका जीतनेवाला होता है ।।१०७।। विशेषार्थ-चिरकालसे ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाला, महातपस्वी, स्वसमय और परसमयका ज्ञाता, हितोपदेश और कथावार्ता में कुशल तथा अनेक बार अन्य वादियों को जीतनेवाला भी जो साधु अपने मनमें ऐसा नहीं विचारता कि मुझे कोई प्रणाम नहीं करता, कोई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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