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________________ षष्ठ अध्याय ४८५ मिथ्यादृशश्चण्डदुरुक्तिकाण्डैः प्रविध्यतोऽरूषि मृधं निरोद्धम् । क्षमोऽपि यः क्षाम्यति पापपाकं ध्यायन स्वमाक्रोशसहिष्णुरेषः ॥१००। अरूंषि-मर्माणि । मृधं-शीघ्रम् ॥१०॥ अथ वधक्षमणमाह नृशंसेऽरं क्वचित्स्वैरं कुतश्चिन्मारयत्यपि । शद्धात्मद्रव्यसंवित्तिवित्तः स्याद्वधमर्षणः ॥१०१॥ नुशंसे-क्रूरकर्मकारिणि । अरं-शोघ्रम् । स्वैरं-स्वच्छन्दम् । द्रव्यं-अविनाशिरूपम् । वित्तःप्रतीतः । वित्तं वा धनम् ॥१०१॥ अथ याचनापरीषहसहनाय साधुमुत्साहयतिभृशं कृशः क्षुन्मुखसन्नवीर्यः शम्पेव दातन् प्रति भासितात्मा। ग्रासं पुटीकृत्य करावयाचा व्रतोऽपि गृह्णन् सह याचनातिम् ॥१०२॥ क्षुन्मुखसन्नवीर्यः-क्षुदध्वपरिश्रमतपोरोगादिग्लपितनैसर्गिकशक्तिः । शम्पेव-दुरुपलक्ष्यमूर्तित्वात् । भासितात्मा-दर्शितस्वरूपः । सकृन्मूर्तिसन्दर्शनव्रतकाल इत्यर्थः । अयाञ्चावतः-प्राणात्ययेऽप्याहारवसति- १५ भैषजानां दीनाभिधानमुखवैवांगसंज्ञादिभिरयाचनात् । सह-क्षमस्व त्वम् ।।१०२॥ अत्यन्त अनिष्ट दुर्वचनरूपी बाणोंके द्वारा मर्मको छेदनेवाले विरोधी मिथ्यादृष्टियोंको शीघ्र रोकने में समर्थ होते हुए भी जो अपने पापकर्मके उदयको विचारकर उन्हें क्षमा कर देता है वह मुनि आक्रोशपरीषहको सहनेवाला है ॥१०॥ आगे वधपरीषह सहनको कहते हैं किसी कारणसे कोई क्रूर कर्म करनेवाला चोर आदि स्वच्छन्दतापूर्वक शीघ्र मारता भी हो तो शुद्ध आत्मद्रव्यके परिज्ञानरूपी धनसे सम्पन्न साधुके वधपरीषह सहन है अर्थात् उस समय वह यह विचार करता है कि यह मारनेवाला मेरे इस दुःखदायी विनाशी शरीरका ही घात करता है मेरे ज्ञानादिक गुणोंका तो घात नहीं करता। यह विचार करते हुए वह वधको सहता है ॥१०१॥ आगे साधुको याचनापरीषह सहने के लिए उत्साहित करते हैं 'प्राण जानेपर भी मैं आहार, वसति, औषध आदि दीन वचनोंके द्वारा या मुखकी म्लानताके द्वारा या किसी प्रकार के संकेत द्वारा नहीं माँगूंगा' इस प्रकारके अयाचनाव्रती हे साधु ! शरीरसे अत्यन्त कृश और भूख-प्यास, मार्गकी थकान, तप आदिके द्वारा शक्तिहीन हो जानेपर भी आहारके समय बिजलीकी चमककी तरह दाताओंको केवल अपना रूप दिखाकर गृहस्थके द्वारा दिये गये ग्रासको दोनों हाथोंको पुटाकार करके ग्रहण करते हुए याचनापरीषहको सहन कर ॥१०२।। विशेषार्थ-भूख-प्यास और तपसे शरीरके सूख जानेपर प्राण भले ही चले जायें किन्तु दीन वचनोंसे, मुखकी म्लानतासे या हाथ आदिके संकेतसे आहार, औषधि आदि जो नहीं माँगता और भिक्षाके समय भी बिजलीकी चमककी तरह गृहस्थोंके घरके सामनेसे निकल जाता है वह साधु याचनापरीषहका जीतनेवाला कहा जाता है। किन्तु श्वेताम्बर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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