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________________ ४७८ धर्मामृत ( अनगार) अथ क्लेशायासाभ्यां विह्वलीभवतो लोकद्वयेऽपि स्वार्थभ्रंशः स्यादिति भीतिमुद्भावयन्नाह विप्लवप्रकृतिर्यः स्यात् क्लेशादायासतोऽथवा। सिद्धस्तस्यात्रिकध्वंसादेवामुत्रिकविप्लवः ॥८६॥ . क्लेशात्-व्याध्यादिबाधातः । आयासत:-प्रारब्धकर्मश्रमात् । सिद्धः-निश्चितो निष्पन्नो वा । आत्रिकध्वंसात-इह लोके प्राप्याभीष्टफलस्य कर्मारम्भस्य परलोकफलार्थस्य वा तस्य विनाशात् ॥८६ ६ अथ भृशं पौनःपुन्येन वाप्युपसर्पद्भिः परीषहोपसर्गरविक्षिप्यमाणचित्तस्य निश्रेयसपदप्राप्तिमुपदिशति क्रियासमभिहारेणाप्यापतद्भिः परीषहैः। क्षोभ्यते नोपसर्गर्वा योऽपवर्ग स गच्छति ॥८॥ उपसर्ग:-सुरनरतिर्यगचेतननिमित्तकैरसह्यपीडाविशेषैः ।।८।। अथ प्रागेवाभ्यस्तसमस्तपरीषहजयस्य महासत्त्वस्य क्रमक्षपितघात्यघातिकर्मणो लोकाग्रचूडामणित्व१२ मुद्गृणाति बड़े पुरुषोंके भी शुभकार्यमें बहुत विघ्न आते हैं। किन्तु विघ्नोंसे डरकर कार्यको नहीं छोड़ना चाहिए। किसीने कहा है __'नीच पुरुष तो विघ्नोंके भयसे कोई कार्य प्रारम्भ ही नहीं करते। मध्यम पुरुष कार्यको प्रारम्भ करके विघ्न आनेपर छोड़ बैठते हैं। किन्तु उत्तम पुरुष विघ्नोंसे बारम्बार सताये जानेपर भी प्रारम्भ किये हुए कार्यको नहीं छोड़ते।' अतः मोक्षके मार्गमें लगनेपर परीषहोंसे घबराकर उसे छोड़ना नहीं चाहिए ।।८५।। जो साधु कष्टों और श्रमसे व्याकुल हो उठता है उसका यह लोक और परलोक दोनों ही नष्ट होते हैं, ऐसा कहते हैं जो मनुष्य व्याधि आदिकी बाधासे अथवा प्रारम्भ किये हुए कार्यके अमसे घबरा जाता है उसका इस लोक सम्बन्धी कार्यका विनाश होनेसे परलोक सम्बन्धी कार्यका विनाश तो सुनिश्चित ही है। अर्थात् इस लोकमें यदि कल्याण मार्गमें सफल होता तो परलोकमें भी अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती। जब इसी लोकमें कुछ नहीं कर सका तो परलोकमें किसका फल भोगेगा ॥८६॥ जिस साधुका मन बारम्बार आनेवाले तीव्र परीषहों और उपससे भी विचलित नहीं होता उसे ही मोक्षकी प्राप्ति होनेका उपदेश देते हैं अधिक रूपमें और बार-बार आ पड़नेवाले भूख-प्यास आदिकी परीषहोंसे तथा देव, मनुष्य, तिथंच और अचेतन पदार्थके निमित्तसे होनेवाले उपसाँसे जो साधु घबराता नहीं है वही मोक्षको जाता है ।।८७| आगे कहते हैं कि जिसने पहलेसे ही समस्त परीषहोंको जीतनेका अभ्यास किया है वह धीर-वीर पुरुष ही क्रमसे घाति और अघाति कोका क्षय करके लोकके अग्र भागमें विराजमान होता है १. वृणा-भ. कु. च.। २. 'प्रारभ्यते न खलु विघ्नमयेन नीचैः प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः । विघ्नः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः प्रारब्धमुत्तमगुणा न परित्यजन्ति' ।-नीति शतक. ७२ श्लोक. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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