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________________ ३ ६ ९ ४७६ जायतेऽध्यात्मयोगेन कर्मणामाशु निर्जरा ॥' [ इष्टोप. २४] प्रतनं - पुराणम् । क्षुदादिवपुषः - क्षुत्पिपासादंशमशकनाग्न्यार तिस्त्री चर्यानिषद्याशय्याक्रोशवधयाचनालाभ रोगतृणस्पर्शमलसत्कारपुरस्कारप्रज्ञाज्ञानदर्शनस्वभावाः । वेदनाः - वेद्यन्तेऽनुभूयन्तेऽसद्वे द्योदयादिकर्मोदयपरतन्त्रः प्राणिभिरिति वेदना अन्तर्बहिर्द्रव्यपरिणामाः शारीरमानस प्रकृष्टपीडाहेतवः । स्वस्थः-१२ स्वस्मिन् कर्मविविक्ते आत्मनि तिष्ठन् । सहते - संक्लेशं दैन्यं च विनाऽनुभवति । परीषहजयः । अस्य संयमतपोविशेषत्वादिहोपदेशः । उक्तं च १५ धर्मामृत (अनगार ) इत्यभिप्रेत्य विशेषसंख्यागर्भ परीषहसामान्यलक्षणमाचक्षाणस्तज्जयाधिकारिणो निर्दिशति - दुःखे भिक्षुरुपस्थिते शिवपथाद् भ्रश्यत्यदुःखश्रितात् तत्तन्मार्गपरिग्रहेण दुरितं रोधुं मुमुक्षुर्नवम् । भोक्तुं च प्रतनं क्षुदादिवपुषो द्वाविशति वेदनाः स्वस्थो यत्सहते परीषहजयः साध्यः स धीरैः परम् ॥८३॥ तन्मार्ग : - शिवपथप्राप्त्युपायः सद्ध्यानमिति यावत् । उक्तं च'परीषहाद्यविज्ञानादास्रवस्य निरोधिनी । 'परिषोढव्या नित्यं दर्शनचारित्ररक्षणे नियताः । संयमतपोविशेषास्तदेकदेशाः परीषहाख्याः स्युः ॥' [ ] ॥८३॥ बिना मिलते नहीं हैं और बन्ध तो दुःखका ही कारण होता है। अतः इन पदोंकी आशा न रखनेवाला ही उस सर्वोच्च मुक्ति पदको प्राप्त करने में समर्थ होता है || ८२ ॥ आचार्य पूज्यपाद ने कहा है- दुःखोंका अनुभव किये बिना प्राप्त किया गया ज्ञान दुःख पड़ने पर नष्ट हो जाता है । इसलिए मुनिको शक्तिके अनुसार दुःखोंके साथ आत्माक भावना करना चाहिए अर्थात् आत्मानुभवन के साथ दुःखोंको सहने की शक्ति भी होना चाहिए । इस से परीषहोंकी संख्या के साथ परीषह सामान्यका लक्षण कहते हुए ग्रन्थकार 'उसको जीतनेका अधिकारी कौन है' यह बतलाते हैं जिस साधुने सुखपूर्वक मोक्षमार्गकी साधना की है, दुःख उपस्थित होनेपर वह साधु मोक्षमार्ग से च्युत हो जाता है । इसलिए मोक्षका मार्ग स्वीकार करनेपर नवीन कर्मबन्धको रोकने के लिए और पुराने कर्मोंकी निर्जराके लिए भूख-प्यास आदि बाईस वेदनाओं को आत्मस्थ साधु जो सहता है उसे परीषहजय कहते हैं। वह परीषहजय केवल धीर वीर पुरुषोंके द्वारा ही साध्य है कायर उसे नहीं सह सकते ॥ ८३ ॥ विशेषार्थ - साधुको मोक्षमार्गकी साधना करते समय अचानक जो कष्ट उपस्थित हो जाते हैं उन्हें परीषह कहते हैं । उनको जीतना अर्थात् उन कष्टोंसे खेदखिन्न न होकर शान्त भाव से उन्हें सहना परीषहजय है । उन्हें वही साधु सह सकता है जिसे कष्टों को सहनेका अभ्यास है । जिन्हें अभ्यास नहीं है वे सहन न कर सकनेसे मार्गभ्रष्ट हो जाते हैं । इसीके लिए अनशन, कायक्लेश आदि तप बतलाये हैं । अतः परीषह भी संयम और तपका ही अंग है । इसीसे यहाँ उसका उपदेश किया जाता है । परीषहको जीतनेसे अन्य लाभ यह है कि नवीन कर्मोंका बन्ध रुकता है और पूर्वबद्ध कर्मोंकी निर्जरा होती है। कहा है- भूख आदिकी वेदनाका अनुभव न करनेसे तथा आत्मामें आत्माका उपयोग लगाने से शुभ-अशुभ कर्मों की संवरपूर्व शीघ्र निर्जरा होती है || ८३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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