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________________ ४७० धर्मामृत ( अनगार) नृन् मध्ये-मनुष्यान् मानुषोत्तरापर्वतपर्यन्ते जम्बूद्वीप-लवणोद-धातकीखण्डद्वीप-कालोदसमुद्रपुष्करवरद्वीपार्धरूपे मध्यदेशे । यथायथं-यथात्मीयस्थानम् । तत्र भवनवासिनां मुखे योजनशतानि विशति त्यक्त्वा खरभाँगे पङ्कबहुलभागे त्वसुराणां राक्षसानां च स्थानानि । व्यन्तराणामधस्ताच्चित्रावज्रावनीसंधेरारभ्योपरिष्ठान्मेरुं यावत्तिर्यक् च समन्तादास्पदानि । ज्योतिष्काणामतो भूमेर्नवत्यधिकसप्तशतयोजनान्याकाशे गत्वोवं दशोत्तरशतयोजनावकाशे नभोदेशे तिर्यक् च घनोदधिवातवलयं यावद् विमानाधिष्ठानानि विमानानि । वैमानिकानां पुनरुद्धर्वमृज्विन्द्रकादारभ्य सर्वार्थसिद्धि यावद् विमानपदानीति यथागमं विस्तरतश्चिन्त्यम् । अध:-अब्बहुलभागात् प्रभृति । अभितः-त्रसनाड्यां तथा बहिश्च । अधियतः-ध्यायतः । सिद्धयैबहिः सिद्धिक्षेत्राय लोकापाय, अध्यात्मं च स्वात्मोपलब्धये ॥७६॥ बाहरका अनन्त आकाश अलोक है। और भी कहा है-यह लोक अकृत्रिम है, इसे किसीने बनाया नहीं है । स्वभावसे ही बना है । अतएव अनादिनिधन है, न उसका आदि है और न अन्त है । सदासे है और सदा रहेगा। इसमें जीव और अजीव द्रव्य भरे हुए हैं । यह समस्त आकाशका ही एक भाग है। इसका आकार आधे मृदंगके मुखपर पूरा मृदंग खड़ा करनेसे जैसा आकार बनता है वैसा ही है। या वेत्रासनके ऊपर झाँझ और झाँझपर मृदंग खड़ा करनेसे जैसा आकार बनता है वैसा है। वेत्रासनके आकारवाले नीचेके भागको अधोलोक कहते हैं उसमें नारकी जीवोंका निवास है । झाँझके आकारवाला मध्यलोक है। इसमें मनुष्योंका निवास है । पूर्ण मृदंगके आकार ऊर्ध्व लोक है इसमें देवोंका निवास है। यह लोक नीचेसे ऊपर तक चौदह राजु ऊँचा है। उत्तर-दक्षिणमें सर्वत्र इसकी मोटाई सात राजु है । पूरब पश्चिममें विस्तार लोकके नीचे सात राजू है । फिर दोनों ओरसे घटते हुए सात राजूकी ऊँचाईपर एक राजु विस्तार है । फिर दोनों ओरसे बढ़ते हुए १०३ साढ़े दस राजूकी ऊँचाईपर पाँच राजू विस्तार है। फिर दोनों ओरसे घटते हुए १४ राजुकी ऊँचाई पर विस्तार एक राजु है । इस समस्त लोकका घनफल तीन सौ तेतालीस राजू है। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-सात राजूमें एक राजू जोड़कर आधा करनेसे ४ राजू आते हैं। उसे ऊँचाई ७ राजूसे गुणा करनेपर अधोलोकका क्षेत्रफल २८ आता है । तथा मृदंगके आकार ऊर्ध्वलोकका क्षेत्रफल इक्कीस राजू है जो इस प्रकार है-पाँच राजूमें एक राजू जोड़कर आधा करनेसे तीन राजू होते हैं। उसे ऊँचाई साढ़े तीन राजूसे गुणा करने पर साढ़े दस राजू होते हैं । यह आधे मृदंगाकारका क्षेत्रफल है। इसे दूना करनेसे इक्कीस राजू होते हैं। अट्ठाईसमें इक्कीस जोड़नेसे उनचास होते हैं। यह सम्पूर्ण लोकका क्षेत्रफल है। इसे लोककी मोटाई सात राजूसे गुणा करनेपर ४९४७=३४३ तीन सौ तेतालीस राजू घनफल आता है। यह ' लोक तीन वातवलयोंसे उसी तरह वेष्ठित है जैसे वृक्ष छालसे वेष्ठित होता है। इसीसे वातके साथ वलय शब्द लगा है। वलय गोलाकार चूड़ेको कहते हैं जो हाथमें पहननेपर हाथको सब ओरसे घेर लेता है। इसी तरह तीन प्रकारकी वायु लोकको सब ओरसे घेरे हुए है। उन्हींके आधार पर यह स्थिर है । इसे न शेषनाग उठाये हुए है और न यह सुअरकी दाढ़पर या गायके सींग पर टिका हुआ है। मध्यलोकके अन्तर्गत जम्बूद्वीप, लवण समुद्र, धातकीखण्ड १. तिमुपर्यधश्चैकैकसहस्रं त्य-भ. कु. च. । २. भागे नागादिनवानां कुमाराणां प-भ. कु. च. । ३. टानानि । वैमा-भ. कु. च.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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