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________________ षष्ठ अध्याय ४५७ 'समभवमहमिन्द्रोऽनन्तशोऽनन्तवारान् पुनरपि च निगोतोऽनन्तशोऽन्तविवर्तः । किमिह फलमभुक्तं तद्यदद्यापि भोक्ष्ये सकलफलविपत्तेः कारणं देव देयाः ॥[ तत्-निरन्वयक्षणिकवादरूपम् । शाक्यः-बुद्धः । तत्-सुखं दुःखं च । सगर्हः-जुगुप्सावान् । कमपि प्राणिनं ग्रसमानो न शकायते इत्यर्थः ॥६२।। • अथ संसारदुरवस्था सुतरां भावयन्नाह अनादौ संसारे विविधविपदातङ्कनिचिते __ मुहुः प्राप्तस्तां तां गतिमगतिकः किं किमवहम् । अहो नाहं देहं कमथ न मिथो जन्यजनका धुपाधि केनागां स्वयमपि हहा स्वं व्यजनयम् ॥६३॥ आतङ्कः-क्षोभावेशः । तां तां-नरकादिलक्षणाम् । अगतिक:-गतिः अपायनिवारणोपायस्त- १२ ज्ज्ञानं वा तद्रहितः । कि कि-उत्सेहादिभेदेन नानाप्रकारम् । प्रायिकमेतत् । तेन सम्यक्त्वसहचारिपुण्योदय विशेषार्थ-यह जीव अनादिकालसे इस संसारमें भ्रमण करता है। इस भ्रमणका नाम ही संसार है । संसारमें भटकते हुए इस जीवने सबसे नीचा पद निगोद और सबसे ऊँचा पद ग्रैवेयकमें अनन्त बार जन्म लेकर सुख-दुःख भोगा है। नव-प्रैवेयकसे ऊपर सम्यग्दृष्टि जीव ही जन्म लेते हैं। इसलिए यह जीव वहाँ नहीं गया। निगोद और ग्रैवेयकके मध्यके नाना स्थानों में भी इसने अनन्त बार जन्म लिया है और सख-दःख भोगा है। किन्त इसे उसका स्मरण नहीं होता। इसपर-से ग्रन्थकार उसे ताना देते हैं कि क्या तू बौद्ध धर्मावलम्बी बन गया है। क्योंकि बौद्ध धर्म वस्तुको निरन्वय क्षणिक मानता है। क्षणिक तो जैन दर्शन भी मानता है क्योंकि पर्याय उत्पाद-विनाशशील हैं। किन्तु पर्यायोंके उत्पाद-विनाशशील होनेपर भी उनमें कथंचिद् ध्रौव्य भी रहता है । बौद्ध ऐसा नहीं मानता। इसीसे उसके मतमें अनन्तर अतीत क्षणमें अनुभूत सुख-दुःखका स्मरण नहीं होता। क्योंकि जो सुख-दुःख भोगता है वह तो उसी क्षणमें नष्ट हो जाता है। यह सब मोहकी ही महिमा है। उसीके कारण इस प्रकारके मत-मतान्तर प्रचलित हुए है । और उस मोहके चंगुलसे कोई बचा नहीं है ॥६२।। आगे मुमुक्षु स्वयं संसारकी दुःखावस्थाका विचार करता है हे आत्मन् ! इष्टवियोग और अनिष्टसंयोगके द्वारा होनेवाली विपत्तियोंके कष्टसे भरे हुए इस अनादि संसार में उन कष्टोंको दूर करनेका उपाय न जानते हुए मैंने बार-बार उन-उन नरकादि गतियोंमें जन्म लेकर वर्ण-आकार आदिके भेदसे नाना प्रकारके किन-किन शरीरोंको धारण नहीं किया ? अर्थात् धारण करने योग्य सभी शरीरोंको धारण किया। इसी प्रकार किस जीवके साथ मैंने जन्य-जनक आदि उपाधियोंको नहीं पाया । बड़ा कष्ट इस बातका है कि मैंने स्वयं ही अपनेको इस अवस्थामें पहुँचाया ॥६३॥ विशेषार्थ-मिथ्यात्वके उदयसे संसार में. भटकता हुआ जीव उन सभी पर्यायोंको धारण करता है जो सम्यक्त्वके सहचारी पुण्यके उदयसे प्राप्त नहीं होती। सभी जीवोंके साथ उसका किसी न किसी प्रकारका सम्बन्ध बनता रहता है । वह किसीका पिता, किसीका १. न्तनिवृत्तः भ. कु. च. मु.। ५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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