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________________ ४५४ धर्मामृत ( अनगार) अथ सम्पदादीनामनित्यताचिन्तनार्थमाह छाया माध्याह्निकी श्रीः पथि पथिकजनैः संगमः संगमः स्वैः, ___ खार्था स्वप्नेक्षितार्थाः पितृसुतदयिताज्ञातयस्तोयभङ्गाः। सन्ध्यारागोऽनुरागः प्रणयरससृजा ह्रादिनीदाम वैश्यं भावाः सैन्यादयोऽन्येऽप्यनुविदधति तान्येव तद्ब्रह्म दुह्मः ॥५९॥ स्वैः-बन्धुभिः । खार्थाः-इन्द्रियार्थाः । पितृसुत-माता च पिता च पितरो, सुता च सुतश्च सूताविति ग्राह्यम । तोयभद्धाः-जलतरङ्गाः। हादिनीदाम-विद्यन्माला । अन्ये-सौधोद्याना अनुविदधति-अनुहरन्ते । तद्ब्रह्म-शाश्वतं ज्ञानम् । दुह्मः-प्रपूरयामो वयमानन्दं वा स्रावयामः ॥५९।। अर्थग्रहण शक्ति थोड़ा-सा भी व्यतिक्रम पाकर नष्ट हो जाती है। तथा यौवन खिले हुए फूलके समान है। जैसे खिला हुआ फूल कुछ समय तक सुन्दर दीखता है फिर मुरझा जाता है उसी तरह यौवन भी है। इस तरह इन चारोंका क्षय नियमसे होता है। इनके स्वरूपका सतत विचार करनेवाला कोई भी मुमुक्षु इनमें आसक्त नहीं हो सकता ॥५८॥ _ इस प्रकार आयु आदि अन्तरङ्ग पदार्थोकी अनित्यताका चिन्तन करके संपत्ति आदि बाह्य पदार्थोंकी अनित्यताका चिन्तन करते हैं लक्ष्मी मध्याह्नकालकी छायाकी तरह चंचल है । बन्धुओंका संयोग मार्ग में मिलनेवाले पथिकजनोंके संयोगकी तरह अस्थायी है। इन्द्रियोंके विषय स्वप्नमें देखे हुए विषयोंकी तरह हैं। माता, पिता, पुत्री, पुत्र, प्रिया और कुटुम्बीजन जलकी लहरोंकी तरह हैं। मित्र आदि का अनुराग सन्ध्याके रागके समान हैं। आदर, सत्कार, ऐश्वर्य आदि बिजलीकी मालाकी तरह है। सेना, हाथी, घोड़े आदि अन्य पदार्थ भी उन्हींकी तरह अनित्य हैं। इसलिए हमें आत्मा और शरीरके भेदज्ञान रूप ब्रह्मको आनन्दसे पूरित करना चाहिए ॥५९।। विशेषार्थ-जैसे मध्याह्नकी छाया क्षणमात्रतक रहकर लुप्त हो जाती है वैसे ही लक्ष्मी भी कुछ कालतक ठहरकर विलीन हो जाती है। तथा जैसे यहाँ-वहाँसे आकर मार्गमें बटोही किसी वृक्ष आदिके नीचे विश्राम करके अपने-अपने कार्यवश इधर-उधर चले जाते हैं वैसे ही बन्धुजन यहाँ-वहाँसे आकर कुछ समयतक एक स्थानपर ठहरकर चले जाते हैं। अथवा जैसे बटोही पूर्व आदि दिशाको जाते हुए मार्गमें पश्चिम आदि दिशासे आनेवाले बटोहियोंके साथ कुछ समयतक मिलकर बिछुड़ जाते हैं वैसे ही बन्धुजन भी मिलकर बिछुड़ जाते हैं। तथा जैसे स्वप्नावस्था में देखे हुए पदार्थ तत्काल ही या जागनेपर कुछ भी अपना कार्य नहीं करते, उसी तरह स्त्री, चन्दनमाला आदि विषय भी भोगनेपर या भोगकर छोड़नेपर सन्ताप और तृष्णाकी शान्ति आदि कुछ भी नहीं करते। तथा जैसे जलमें लहरें उत्पन्न होकर शीघ्र ही विलीन हो जाती हैं उसी तरह पिता वगैरह भी कुछ कालतक ठहरकर चले जाते हैं। तथा जैसे सन्ध्याके समय कुछ कालतक लालिमा रहती है वैसे ही मित्र आदिकी प्रीति भी कुछ ही कालतक रहती है। इसी तरह सेना वगैरह भी बिजलीकी चमककी तरह देखते-देखते ही विलीन हो जाती है। इस तरह सभी प्रकारकी बाह्य वस्तुएँ क्षणिक हैं। अतः उनमें मन न लगाकर आत्मामें ही लगाना चाहिए। ऐसा विचार करते रहनेसे वाह्य संपत्तिमें आसक्ति नहीं होती, और जैसे पुष्पमालाको भोगकर छोड़ देनेपर दुःख नहीं होता वैसे ही संपत्ति तथा बन्धु-बान्धओंका वियोग होनेपर भी दुःख नहीं होता। इस प्रकार अनित्यानुप्रेक्षाका स्वरूप जानना ॥५९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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