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________________ षष्ठ अध्याय ४३५ उद्धाः-लाभपूजाख्यातिनिरपेक्षतयोत्तमाः । योगक्षेमयुतेन-समाध्यनुपघातयुक्तेन अलब्धलाभलब्धपरिरक्षणसहितेन च । सकलश्रीभूयम्-जीवयुक्तत्वं । ( जीवन्मुक्तत्वं ) चक्रवर्तित्वं च । ईषल्लभंअनायासेन लभ्यते ॥३४॥ अथ सत्यलक्षणस्य धर्मस्य लक्षणोपलक्षणपूर्वकमनुभावमाह कूटस्थस्फुटविश्वरूपपरमब्रह्मोन्मुखाः सम्मताः ___ सन्तस्तेषु च साधु सत्यमुदितं तत्तीर्णसूत्राणवैः । आ शुश्रुषुतमः क्षयात्करुणया वाच्यं सदा धार्मिकै ___राज्ञानविषादितस्य जगतस्तद्धयेकमुज्जीवनम् ॥३५॥ कूटस्थानि-द्रव्यरूपतया नित्यानि । विश्वरूपाणि-चराचरस्य जगतोऽतीतानागतवर्तमानानन्त- २ पर्यायाकाराः । यदवोचत् स्वयमेव स्तुतिषु 'सर्वदा सर्वथा सर्वं यत्र भाति निखातवत् । तज्ज्ञानात्मानमात्मानं जानानस्तद्भवाम्यहम् ॥ [ ] साधु-उपकारकम् । उदितं-वचनम् ॥३५॥ कहा है-'मनमें किसी विचारके न होते हुए जब आत्मा आत्मामें ही लीन होता है उसे निर्बीज ध्यान अर्थात् एकत्व वितर्क वीचार नामक शुक्लध्यान कहते हैं।' सारांश यह है कि जैसे कोई विजिगीषु उत्कृष्ट आदि शक्तियोंसे युक्त, उत्कृष्ट आदि वैर रखनेवाले और सेना आदिसे सहित चारों दिशाओंके शत्रुओंको चक्र आदि आयुधोंसे मारकर योग और क्षेम धारण करते हुए चक्रवर्ती हो जाता है, वैसे ही कोई भव्य जीव संख्यात आदि भवोंकी वासनावाली अनन्तानुबन्धी आदि क्रोधोंको हास्य आदि नोकषायोंके साथ, उत्तम क्षमा आदि भावनाके बलसे उखाड़कर शुक्लध्यान विशेषकी सहायतासे जीवन्मुक्तिको प्राप्त करता है। इस प्रकार उत्तम क्षमा आदिके माहात्म्यका वर्णन समाप्त होता है। अब सत्य धर्मके लक्षण और उपलक्षणके साथ माहात्म्य भी बतलाते हैं जिसमें द्रव्यरूपसे नित्य और स्पष्ट ज्ञानके द्वारा जानने योग्य चराचर जगत्के अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायाकार प्रतिबिम्बित होते हैं उस परमब्रह्मस्वरूप होने के लिए जो तत्पर होते हैं उन्हें सन्त कहते हैं। और ऐसे सन्त पुरुषों में जो उपकारी वचन होता है उसे सत्य कहते हैं। परमागमरूपी समुद्रके पारदर्शी धार्मिक पुरुषोंको सदा करुणाबुद्धिसे सत्य वचन तबतक बोलना चाहिए जबतक सुननेके इच्छुक जनोंका अज्ञान दूर न हो; क्योंकि घोर अज्ञानरूपी विषसे पीड़ित जगत्के लिए वह सत्य वचन अद्वितीय उद्बोधक होता है ॥३५॥ विशेषार्थ-'सत्सु साधवचनं सत्यम', सन्त पुरुषों में प्रयुक्त सम्यक वचनको सत्य कहते हैं ऐसी सत्य शब्दकी निरुक्ति है। तब प्रश्न होता है कि सन्त पुरुष कौन है ? जो परम ब्रह्मस्वरूप आत्माकी ओर उन्मुख है वे सन्त हैं । जैसे वेदान्तियोंका परम ब्रह्म सचराचर जगत्को अपने में समाये हुए है वैसे ही आत्मा ज्ञानके द्वारा सब द्रव्योंकी भूत, वर्तमान और १. भ. कु.च.। २. निर्विचारावतारासु चेतःश्रोतःप्रवृत्तिषु । आत्मन्येव स्फुरन्नात्मा तत्स्याद्धयानमबीजकम्' ।।-सो. उपा., श्लो. ६२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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