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________________ ४३२ धर्मामृत (अनगार) तादृक्ष जमदग्निमिष्टिनमृषि स्वस्यातिथेयाध्वरे, हत्वा स्वीकृतकामधेनुरचिराद्यत्कार्तवीर्यः क्रुधा। जघ्ने सान्वयसाधनः परशुना रामेण तत्सनुना, - तदुर्दण्डित इत्यपाति निरये लोभेन मन्ये हठात् ॥३१॥ तादृक्षे-सकललोकचित्तचमत्कारिणि । जघ्ने-हतः । सान्वयसाधनः-संतानसैन्यसहितः । । रामेण-परशुरामनाम्ना ॥३१॥ अथानन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण-संज्वलन संज्ञिकाः क्रोध-मान-माया-लोभानां प्रत्येक चतस्रोऽवस्था दृष्टान्तविशेषैः स्पष्टयन क्रमेण तत्फलान्यायद्वयेनोपदिशति दृशदवनि-रजोऽब्राजिवदश्मस्तम्भास्थिकाष्ठवेत्रकवत् । वंशाध्रिमेषशृङ्गोक्षमूत्रचामरवदनुपूर्वम् ॥३२॥ कृमि-चक्र-कायमलरजनिरागवदपि च पृथगवस्थाभिः । क्रुन्मानदम्भलोभा नारकतिर्यनसुरगतीः कुर्युः ॥३३॥ दृषदित्यादि । यथा शिला भिन्ना सती पुनरुपायशतेनापि न संयुज्यते तथाऽनन्तानुबन्धिना क्रोधेन विघटितं मनः । यथा च पृथ्वी विदीर्णा सती महोपक्रमेण पुनर्मिलति तथा प्रत्याख्यानेन विघटितं चेतः । यथा च धली रेखाकारेण मध्ये भिन्ना अल्पेनाप्युपक्रमेण पुनर्मिलति तथा प्रत्याख्यानेन विघटितं चित्तम् । यथा च समस्त लोकके चित्तमें आश्चर्य पैदा करनेवाले अपने अतिथि सत्कारमें, सत्कार 'करनेवाले ऋषि जमदग्निको मारकर उनकी कामधेनु ले जाने वाले राजा कार्तवीर्यको जमदग्निके पुत्र परशुरामने क्रुद्ध होकर सेना और सन्तानके साथ मार डाला। इसपर ग्रन्थकार कल्पना करते हैं कि उसको मिला यह दण्ड पर्याप्त नहीं था, मानो इसीसे लोभने उसे बलपूर्वक नरकमें डाल दिया ॥३१॥ विशेषार्थ-महाभारतके वनपर्व अध्याय ११६ में यह कथा इस प्रकार आती है कि राजा कातवीर्य जमदग्निके आश्रम में गये और उनकी कामधेनु गायका बछड़ा जबरदस्ती ले आये। उस समय आश्रममें केवल ऋषिपत्नी ही थी। उन्होंने राजाका आतिथ्य किया। किन्तु राजाने उसकी भी उपेक्षा की। जब परशुराम आया तो उसके पिता ने उससे यह समाचार कहा। रामने राजा कातवीयको मार डाला। पीछे एक दिन राजाके उत्तराधिकारियोंने आश्रममें जाकर जमदग्निको मार डाला । इस सब हत्याकाण्डकी जड़ है कामधेनुका लोभ ।' वही लोभ कार्तवीय और उसके समस्त परिवारकी मृत्युका कारण बना ॥३१॥ इस प्रकार उत्तम शौच भावनाका प्रकरण समाप्त हुआ। क्रोध, मान, माया, लोभमें से प्रत्येककी चार अवस्थाएँ होती हैं, उनके नाम अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन हैं। दृष्टान्तोंके द्वारा उसे स्पष्ट करते हुए क्रमसे दो आर्याओंके द्वारा उनका फल बतलाते हैं क्रोध, मान, माया और लोभ इनमें से प्रत्येक.की क्रमसे चार अवस्थाएँ होती हैं। शिलाकी रेखा, पृथ्वीको रेखा, धूलीकी रेखा और जलकी रेखाके समान क्रमसे अनन्तानुबन्धी क्रोध, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण क्रोध और संज्वलन क्रोध होता है। और यह क्रोध क्रमसे नरक गति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगतिमें उत्पन्न करता है। पत्थरका स्तम्भ, हड्डी, लकड़ी और वेतके समान क्रमसे अनन्तानुबन्धी आदि मान होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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