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________________ षष्ठ अध्याय ४२९ गुणाः-दयामैत्रीसाधुकारादयः। व्यासोऽप्याह _ 'भूमिष्ठोऽपि रथस्थांस्तान् पार्थः सर्वधनुर्धरान् । एकोऽपि पातयामास लोभः सर्वगुणानिव ॥' [ गुणानिव॥ [ ] श्यन्तु-कृशीकुर्वन्तु ॥२४॥ अथ गुणलक्षशतेन समकक्षमप्यौचित्यमत्यन्तलुब्धस्य नित्यमुद्वेजनीयं स्यादित्युपदिशति गुणकोटया तुलाकोटि यदेकमपि टीकते। तदप्यौचित्यमेकान्तलुब्धस्य गरलायते ॥२५॥ तुलाकोटिं-ऊर्ध्वमानान्तमुपमोत्कर्ष च । टीकते-चटति । औचित्यं-दान-प्रियवचनाभ्यामन्यस्य सन्तोषोत्पादनम् । उक्तं च 'औचित्यमेकमेकत्र गुणानां राशिरेकतः। विषायते गुणग्राम औचित्यपरिवर्जितः ॥ [ ] ॥२५॥ अथ स्वपरजीवितारोग्येन्द्रियोपभोगविषयभेदादष्टविधेनापि लोभेनाकुलितः सातत्येन सर्वमकृत्यं १२ करोतीत्युपदिशति उपभोगेन्द्रियारोग्यप्राणान स्वस्य परस्य च । गुध्यन् मुग्धःप्रबन्धेन किमकृत्यं करोति न ॥२६|| अकृत्यं-गुरुपितृवधादिकम् ।।२६॥ विशेषार्थ-'लोभ पापका मूल है' यह उक्ति लोकमें प्रसिद्ध है। फिर भी जो इसे नहीं मानते वे स्वयं अनुभव करेंगे कि लोभसे किस प्रकार सद्गुणोंका नाश होता है। व्यासजीने भी कहा है-'भूमिपर खड़े हुए भी अकेले अर्जुनने रथमें बैठे हुए उन सभी धनुषधारियोंको उसी तरह मार गिराया जैसे लोभ सब गुणोंको नष्ट कर देता है।' इस दृष्टान्तसे स्पष्ट है कि लोभ सब गुणोंका नाशक है ॥२४॥ __ आगे कहते हैं कि औचित्य नामक गुण करोड़ गुणोंके समान है फिर भी वह अत्यन्त लोभीको कष्टदायक होता है जो अकेला भी औचित्य गुण एक करोड़ गुणोंकी तुलनामें भारी पड़ता है वही औचित्य गुण अत्यन्त लोभी मनुष्यको विषके तुल्य प्रतीत होता है ॥२५॥ विशेषार्थ-दान द्वारा तथा प्रिय वचनोंके द्वारा दूसरेको सन्तुष्ट करनेका नाम औचित्य गुण है । इस गुणकी बड़ी महिमा है। कहा है-'एक ओर एक औचित्य गुण और दूसरी ओर गुणोंकी राशि। औचित्य गुणके बिना गुणोंकी राशि विष तुल्य प्रतीत होती है। यदि मनुष्यमें प्रिय वचनोंके द्वारा भी दूसरेको सन्तोष दिलानेकी क्षमता न हो तो उसके सभी गुण व्यर्थ हैं। किन्तु लोभी मनुष्य दान देना तो दूर, प्रिय वचनोंके द्वारा भी दुसरेको सन्तष्ट करना नहीं चाहता। उसे किसी भी प्रार्थीका आना ही नहीं सुहाता ॥२५॥ __ स्वजीवन, परजीवन, आरोग्य और पाँचों इन्द्रियोंके उपभोग इन आठ विषयोंकी अपेक्षा लोभके आठ भेद होते हैं। इन आठ प्रकारके लोभोंसे व्याकुल मनुष्य सभी न करने योग्य काम करता है ऐसा कहते हैं अपने और अपने स्त्री-पुत्रादिके इष्ट विषयोंको, इन्द्रियोंको, आरोग्यको और प्राणोंको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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