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________________ पंचम अध्याय अथ द्वात्रिंशतमन्तरायान् व्याख्यातुमुपक्षिपति - प्रायोऽन्तरायाः काकाद्याः सिद्धभक्तेरनन्तरम् । द्वात्रिंशद्वयाकृताः प्राच्यैः प्रामाण्या व्यवहारतः ॥४२॥ प्रायः । एतेनाभोज्यगृहप्रवेशादेः सिद्धभक्तेः प्रागप्यन्तरायत्वं भवतीति बोधयति । तथा द्वात्रिंशतोऽतिरिक्ता अप्यन्तराया यथाम्नायं भवन्तीति च । व्याकृताः - व्याख्याता न सूत्रिताः । प्राच्यैः - टीकाकारादिभिः । उक्तं च मूलाचारटीकायां (गा. ३४ ) स्थितिभोजनप्रकरणे - 'न चैतेऽन्तरायाः सिद्धभक्तावकृतायां गृह्यन्ते सर्वदैव भोजनाभावः स्यात् । न चैवं, यस्मात् • सिद्धभक्ति यावन्न करोति तावदुपविश्य पुनरुत्थाय भुंक्ते । मांसादीन् दृष्ट्वा च रोदनादिश्रवणेन च उच्चारादींश्च कृत्वा भुंक्ते । न च तत्र काकादिपिण्डहरणं संभवति' ॥ ४२ ॥ अथ काकाख्यलक्षणमाह कवादिवित्स भोक्तुमन्यत्र यात्यधः । यतौ स्थिते वा काकाण्यो भोजनत्यागकारणम् ॥४३॥ काकेत्यादि । काकश्येन शुनक मार्जारादिविष्टापरिपतनमित्यर्थः ॥ ४३ ॥ ४०३ किया जा सकता है | अतः मुनि इन्हें भोजनसे अलग कर दे । यदि इन्हें भोजनसे अलग करना शक्य न हो तो भोजन ही त्याग देना चाहिए ॥ ४१ ॥ बत्तीस अन्तरायोंको कहते हैं पूर्व टीकाकारोंने प्रायः सिद्धभक्तिके पश्चात् काक आदि बत्तीस अन्तरायोंका व्याख्यान किया है । अतः मुनियोंको वृद्ध परम्परासे आगत देश आदिके व्यवहारको लेकर उन्हें प्रमाण मानना चाहिए ॥ ४२ ॥ Jain Education International विशेषार्थ - ग्रन्थकार कहते हैं कि भोजनके अन्तरायोंका कथन मूल ग्रन्थों में नहीं पाया जाता । टीकाकार वगैरहने उनका कथन किया है । तथा ये अन्तराय सिद्ध भक्ति करने के बाद ही माने जाते हैं। मूलाचारकी टीका में (गा. ३४) स्थिति भोजन प्रकरणमें कहा है-ये अन्तराय सिद्ध भक्ति यदि न की हो तो मान्य नहीं होते । यदि ऐसा हो तो सर्वदा ही भोजनका अभाव हो जायेगा । किन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि जबतक साधु सिद्ध भक्ति नहीं करता तब तक बैठकर और पुनः खड़े होकर भोजन कर सकता है। मांस आदिको देखकर, रोनेके शब्दको सुनकर तथा मल-मूत्र आदिका त्याग करके भोजन करता है । 'प्रायः' कहने से कोई-कोई अन्तराय सिद्ध भक्ति करने से पहले भी होते हैं यह सूचित होता है । जैसे 'अभोज्य गृहप्रवेश' अर्थात् ऐसे घर में प्रवेश जिसका भोजन ग्राह्य नहीं है । यह भी एक अन्तराय माना गया है । यद्यपि मूलाचारके पिण्डशुद्धि नामक अध्यायमें अन्तरायोंका कथन है फिर भी पं. आशाधरजीका यह कहना कि अन्तरायोंका कथन टीकाकार आदिने किया है, 'व्याकृताः - व्याख्याता, न सूत्रिताः । सूत्र प्रन्थोंमें सूत्रित नहीं है, चिन्तनीय है कि उनके इस कथनका वास्तविक अभिप्राय क्या है ? वैसे श्वेताम्बरीय पिण्डनिर्युक्तिमें, जिसे भद्रबाहु कृत माना जाता है, अन्तरायोंका कथन नहीं है ||४२ ॥ काक नामक अन्तरायका लक्षण कहते हैं किसी कारणसे सिद्ध भक्ति करनेके स्थानसे भोजन करनेके लिए साधुके अन्यत्र जाने अथवा भोजन के लिए खड़े होनेपर यदि काक, कुत्ता, बिल्ली आदि टट्टी कर दें तो काक नामक अन्तराय होता है और वह भोजनके त्यागका कारण होता है ||४३ ॥ For Private & Personal Use Only ३ ६ ९ १.२. www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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