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________________ धर्मामृत (अनगार ) देवताः - नागयक्षादयः । दीना: - कृपणाः । लिङ्गिनः - जैन दर्शन बहिर्भूतानुष्ठानाः पाषण्डाः । सर्वे - अविशेषेण गृहस्थपाषण्डादयः । साधवः - निर्ग्रन्थाः । उद्दिश्य - निमित्तीकृत्य । सर्वाद्युद्देशेन च कृतमन्नं ३ क्रमेणोद्देशादि (-भेदा - ) च्चतुर्धा स्यात् । तथाहि-- यः कश्चिदायास्यति तस्मै सर्वस्मै दास्यामीति सामान्योद्देशेन साधितमुद्देश इत्युच्यते । एवं पाषण्डानुद्दिश्य साधितं समुद्देशः, पार्श्वस्थानादेशः, साधूंश्च समादेश इति ॥७॥ . अथ साधितं द्विधा लक्षयति ६ ३८० १२ स्वपाके ६- स्वस्य दातुरात्मनो निमित्तं पच्यमाने तण्डुलादिधान्ये जले वाऽधिश्रिते । आपचनात् - ९ पाकान्तं यावत् ॥८॥ स्याद्दोषोsध्यधिरोधो यत्स्वपाके यतिदत्तये । प्रक्षेपस्तण्डुलादीनां रोधो वाऽऽपचनाद्यतेः ॥८॥ अथाप्रासुकमिश्रणपूतिके संकल्पनाभ्यां द्विविधं पूतिदोषमाह - पूति प्रासु यदप्रासुमिश्रं योज्यमिदं कृतम् । नेदं वा यावदार्येभ्यो नादायीति च कल्पितम् ॥९॥ विशेषार्थ - मूलाचार (४२६ गा.) में औदेशिकके चार भेद किये हैं- उद्देश, समुद्देश, आदेश और समादेश । जो कोई भी आयेगा उन सबको दूँगा, इस प्रकार सामान्य उद्देश से साधित भोजन उद्देश है । इसी तरह पाखण्डीके उद्देशसे बनाया गया भोजन समुद्देश है । श्रमणोंके उद्देशसे बनाया गया भोजन आदेश है और निर्ग्रन्थोंके उद्देशसे बनाया गया भोजन समादेश है । श्वे. पिण्डनियुक्ति में भी ये भेद हैं। इतना ही नहीं, किन्तु मूलाचार गा. २६ और पिण्ड निर्युक्ति गा. २३० भी समान हैं। पिण्ड नियुक्ति में औदेशिकके अन्य भी भेद किये हैं ||७| 1 दूसरे भेद साधिका स्वरूप दो प्रकार से कहते हैं अपने लिए पकते हुए चावल आदि में या अदहनके जल में 'मैं आज मुनिको आहार दूँगा' इस संकल्प के साथ चावल आदि डालना अध्यधिरोध नामक दोष है । अथवा अन्न पक तक पूजा या धर्म सम्बन्धी प्रश्नोंके बहानेसे साधुको रोके रखना अध्यधिरोध नामक दोष है ||८|| विशेषार्थ - साधिक दोषका दूसरा नाम अध्यधिरोध है । पिण्ड नियुक्ति में इसका नाम अध्यवपूरक है । अपने लिए भोजन पकाने के उद्देश्यसे आगपर पानी रखा या चावल पकनेको रखे | पीछे मुनिको दान देनेके विचारसे उस जल में अधिक जल डालना या चावलमें अतिरिक्त चावल डालना साधिक या अध्यधिरोध दोष है । अथवा भोजन के पकने में विलम्ब देखकर धर्मचर्चा के बहानेसे भोजनके पकनेतक साधुको रोके रखना भी उक्त दोष है ||८|| Jain Education International दो प्रकार के पूर्ति दोषको कहते हैं पूति दोष के दो प्रकार हैं- अप्रासुमिश्र और कल्पित । जो द्रव्य स्वरूप से प्राक उसमें अप्रासुक द्रव्य मिला देना अप्रासुकमिश्र नामक प्रथम पूति दोष है । तथा इस चूल्हे पर १. तिकर्मक-भ. कु. च. । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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