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________________ ३७८ धर्मामृत ( अनगार) अथोद्गमोत्पादनदोषाणां स्वरूपसंख्यानिश्चयार्थमाह दातुःप्रयोगा गत्यर्थे भक्तादौ षोडशोद्गमाः। औद्देशिकाद्या धाव्याद्याः षोडशोत्पादना यते: ॥२॥ प्रयोगाः-अनुष्ठानविशेषाः। भक्तादौ-आहारौषधवसत्युपकरणप्रमुखे देयवस्तुनि । यतेः प्रयोगा इत्येव ॥२॥ अथापरदोषोद्देशार्थमाह शङ्किताद्या दशान्नेऽन्ये चत्वारोऽङ्गारपूर्वकाः । षट्चत्वारिंशदन्योऽधः कर्म सूनाङ्गिहिंसनम् ॥३॥ षटचत्वारिंशत् पिण्डदोषेभ्योऽन्यो-भिन्नोऽयं दोषो महादोषत्वात् । सूनाङ्गिहिंसनम्-सूनाश्चुल्ल्याद्याः पञ्च हिंसास्थानानि ताभिरङ्गिनां षट्जीवनिकायानां हिंसनं दुःखोत्पादनं मारणं वा। अथवा शूनाश्चाङ्गिहिंसनं चेति ग्राह्यम् । एतेन वसत्यादिनिर्माणसंस्कारादिनिमित्तमपि प्राणिपीडनमधःकमैवेत्युक्तं स्यात् । तदेतदधःकर्म गृहस्थाश्रितो निकृष्टव्यापारः । अथवा सूनाभिरङ्गिहिंसनं यत्रोत्पाद्यमाने भक्तादौ तदधःकर्मेत्युच्यते, कारणे कार्योपचारात् । तथात्मना कृतं परेण वा कारितं, परेण वा कृतमात्मनानुमतं दूरतः संयतेन त्याज्यम् । गार्हस्थ्यमेतद् वैयावृत्यादिविमुक्तमात्मभोजननिमित्तं यद्येतत् कुर्यात् तदा न श्रमणः किन्तु गृहस्थः १५ स्यात् । उक्तंच छज्जीवनिकायाणं विराहणोद्दावणेहि णिप्पण्णं । आधाकम्मं णेयं सयपरकदमादसंपण्णं ॥ [ मूलाचार, गा. ४२४ ] ॥३॥ आगे उद्गम और उत्पादन दोषोंका स्वरूप तथा संख्या कहते हैं यतिके लिए देय आहार, औषध, वसति और उपकरण आदि देने में दाताके द्वारा किये जानेवाले औद्देशिक आदि सोलह दोषोंको उद्गम दोष कहते हैं। तथा यतिके द्वारा अपने लिए भोजन बनवाने सम्बन्धी धात्री आदि दोषोंको उत्पादन दोष कहते हैं। उनकी संख्या भी सोलह है । अर्थात् उद्गम दोष भी सोलह हैं और उत्पादन दोष भी सोलह हैं । उद्गम दोषोंका सम्बन्ध दातासे है और उत्पादन सम्बन्धी दोषोंका सम्बन्ध यतिसे है ॥२॥ शेष दोषोंको कहते हैं आहारके सम्बन्धमें शंकित आदि दस दोष हैं तथा इन दोषोंसे भिन्न अंगार आदि चार दोष हैं । इस तरह सब छियालीस दोष हैं। इन छियालीस दोषोंसे भिन्न अधःकर्म नामक दोष है। चूल्हा, चक्की, ओखली, बुहारी और पानीकी घड़ोची ये पाँच सूनाएँ हैं। इनसे प्राणियोंकी हिंसा करना अधःकर्म नामक महादोष है ॥३॥ विशेषार्थ-भोजन सम्बन्धी अधःकर्म नामक दोषसे यह फलित होता है कि वसति आदिके निर्माण या मरम्मत आदिके निमित्तसे होनेवाली प्राणिपीड़ा भी अधःकर्म ही है। इसीसे अधोगतिमें निमित्त कर्मको अधःकर्म कहते हैं, यह सार्थक नाम सिद्ध होता है। यह अधःकर्म गृहस्थोचित निकृष्ट व्यापार है। अथवा जहाँ बनाये जानेवाले भोजन आदिमें सूनाओंके द्वारा प्राणियोंकी हिंसा होती है वह अधःकर्म है। यहाँ कारणमें कार्यका उपचार है । ऐसा भोजन स्वयं किया हो, दूसरेसे कराया हो, या दूसरेने किया हो और उसमें अपनी अनुमति हो तो मुनिको दूरसे ही त्याग देना चाहिए। यह तो गृहस्थ अवस्थाका काम है । यदि कोई मुनि अपने भोजनके लिए यह सब करता है तो वह मुनि नहीं है, गृहस्थ है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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