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________________ चतुर्थ अध्याय ३७५ कि कुर्वाणमरुद्गणः-किं करोमीत्यादेशप्रार्थनापरशक्रादिदेवनिकायः । एकं-उत्कृष्टं मुख्यमित्यर्थः । मंगलं-पापक्षपणपुण्यप्रदाननिमित्तमित्यर्थः ॥१८१॥ अथ तपसश्चारित्रेऽन्तर्भावमुपपादयन्नाहकृतसुखपरिहारो वाहते यच्चरित्रे न सुखनिरतचित्तस्तेन बाह्यं तपः स्यात् । परिकर इह वृत्तोपक्रमेऽन्यत्तु पापं क्षिपत इति तदेवेत्यस्ति वृत्ते तपोऽन्तः ॥१८२॥ वाहते-प्रयतते । तेनेत्यादि । तदुक्तम् बाहिरतवेण होइ खु सव्वा सुहसीलदा परिच्चत्ता। [ भ. आ. २३७ ।] परिकरः-परिकर्म । अन्यत्-अभ्यन्तरं तपः क्षिपते-उपात्तं विनाशयति अपूर्व निरुणद्धि च । तदेव-वृत्तमेव ॥१८२॥ अथोक्तमेवार्थ स्पष्टयन्नाह त्यक्तसुखोऽनशनादिभिरुत्सहते वृत्त इत्यघं क्षिपति । प्रायश्चित्तादीत्यपि वृत्तऽन्तर्भवति तप उभयम् ॥१८३॥ स्पष्टमिति भद्रम् ॥१८३॥ तपस्याके द्वारा जितनी कर्मोंकी निर्जरा करता है उससे भी अधिक कर्मबन्ध कर लेता है । भगवती आराधनामें कहा भी है-असंयमी सम्यग्दृष्टिका भी तप महान् उपकारी नहीं होता। उसका वह तप हस्तिस्नान और मथानीकी रस्सीकी तरह होता है ॥१८१॥ तपके चारित्र में अन्तर्भावकी उपपत्ति बतलाते हैं यतः शारीरिक सुखका परित्याग करनेवाला व्यक्ति चारित्रमें यत्नशील होता है। जिसका चित्त शारीरिक सखमें आसक्त है वह चारित्र में यत्नशील नहीं होता। इसलिए बाह्य तप चारित्रके इस उपक्रममें उसीका अंग है। और अभ्यन्तर तप तो चारित्र ही है क्योंकि पूर्वबद्ध पापकर्मका नाश करता है और नवीन बन्धको रोकता है। अतः दोनों ही प्रकारका तप चारित्रमें गर्भित होता है ॥१८२॥ विशेषार्थ-तपके दो भेद हैं-अन्तरंग और बाह्य। ये दोनों ही चारित्रमें अन्तर्भूत होते हैं। उनमें से अनशन आदि रूप बाह्य तप तो इसलिए चारित्रका अंग है कि उसका सम्बन्ध विशेष रूपसे शारीरिक सुखके प्रति अनासक्तिसे है । शारीरिक सुखमें आसक्त व्यक्ति भोजन आदिका त्याग नहीं कर सकता और ऐसी स्थितिमें वह चारित्र धारण करनेके लिए उत्सुक नहीं हो सकता । तथा अन्तरंग तप तो मनका नियमन करनेवाला होनेसे चारित्र रूप ही है । चारित्रका मतलब ही स्वरूपमें चरणसे है। इन्द्रियजन्य सुखसे आसक्ति हटे बिना स्वरूपमें रुचि ही नहीं होती प्रवृत्ति तो दूरकी बात है ॥१८२।। आगे इसीको स्पष्ट करते हैं शारीरिक सुखसे विरक्त साधु अनशन आदिके द्वारा चारित्र धारण करनेमें उत्साहित होता है और प्रायश्चित्त आदि तप पापको नष्ट करता है अतः दोनों ही प्रकारका तप चारित्रमें अन्तर्भूत होता है ॥१८३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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