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________________ ३६८ धर्मामृत ( अनगार) 'जहजादरूवजादं उप्पाडिदकेसमंसुगं सुद्धं । रहिदं हिंसादीदो अप्पडिकम्मं हवदि लिंगं ॥' मुच्छारंभविजुत्तं जुत्तं उवजोगजोगसुद्धीहि । लिंगं न परावेक्खं अपुणब्भवकारणं जोण्हं॥ आदाय तं पि लिंगं गुरुणा परमेण तं नमंसिता। सोच्चा सवदं किरियं उवट्ठिदो होदि सो समणो॥ वदसमिदिदियरोधो लोचावस्सगमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतंवणं ठिदिभोयणमेयभत्तं च ॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता। तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि ॥' [ गा. २०५-२०९ ।] अपि-न केवलं छेदोपस्थापनमेवान्वेति किन्तु कदाचित्पुनः सामायिकमप्यधिरोहतीत्यर्थः । बाह्ये१२ चेष्टामात्राधिकृते द्रव्यहिसारूपे । आन्तरे-उपयोगमात्राधिकृते भावहिसारूपे । कथमपि-अज्ञानेन प्रमादेन ' वा प्रकारेण । ऐतिह्यानुगुणं-आगमाविरोधेन इत्यर्थः । उक्तं च 'व्रतानां छेदनं कृत्वा यदात्मन्यधिरोपणम् । शोधनं वा विलोपेन छेदोपस्थापनं मतम् ॥' [सं. पं. सं. २४० श्लो. ] इह-अस्मिन् भरतक्षेत्रे । ऐदंयुगीनेषु-अस्मिन् युगे साधुषु दुष्षमाकाले सिद्धिसाधकेष्वित्यर्थः । तं-सामायिकादवरुह्य छेदोपस्थापनमनुवर्तमानं पुनः सामायिके वर्तमानं वा ॥१७६॥ छेदोपस्थापक हो जाता है। प्रवचनसारमें कहा भी है-'जन्मसमयके रूप जैसा नग्न दिगम्बर, सिर और दाढ़ी-मूंछ के बालोंका लोंच किया हुआ, शुद्ध, हिंसा आदिसे रहित, प्रतिकर्म अर्थात् शरीर संस्कारसे रहित बाह्य लिंग होता है। ममत्व भाव और आरम्भसे रहित, उपयोग और योगकी शुद्धिसे सहित, परकी अपेक्षासे रहित जैन लिंग मोक्षका कारण है । परम गुरुके द्वारा दिये हुए दोनों लिंगोंको ग्रहण करके, उन्हें नमस्कार करके, व्रत सहित क्रियाको सुनकर उपस्थित होता हुआ वह श्रमण होता है। पाँच महाव्रत, पाँच पाँचों इन्द्रियोंका निरोध, केशलोंच, छह आवश्यक, नग्नता, स्नान न करना, भूमिशयन, दन्तधावन न करना, खड़े होकर भोजन, एक बार भोजन ये अट्ठाईस मूलगुण श्रमणोंके जिनभगवान्ने कहे हैं। उनमें प्रमादी होता हुआ छेदोपस्थापक होता है। छेदोपस्थापनाके दो अर्थ हैं । यथा-व्रतोंका छेदन करके आत्मामें आरोपण करनेको अथवा व्रतोंमें दोष लगनेपर उसका शोधन करनेको छेदोपस्थापन कहते हैं। अर्थात् सामायिक संयममें दोष लगनेपर उस दोषकी विशुद्धि करके जो व्रतोंको पाँच महाव्रत रूपसे धारण किया जाता है वह छेदोपस्थापना है। सामायिक संयम सर्वसावद्यके त्यागरूपसे एक यम रूप होता है और छेदोपस्थापना पाँच यम रूप होता है । छेदोपस्थापनाके पश्चात् सामायिक संयम नहीं होता, ऐसी बात नहीं है। पुनः सामायिक संयम हो सकता है। और पुनः दोष लगनेपर पुनः छेदोपस्थापना संयम होता है । जो सामायिक संयमके प्रदाता दीक्षा देनेवाले आचार्य होते हैं उन्हें गुरु कहते हैं। और छिन्न संयमका संशोधन करके जो छेदोपस्थापक होते हैं उन्हें निर्यापक कहते हैं ॥१७६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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