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________________ ३६६ धर्मामृत ( अनगार) सदसत्खार्था:-इष्टानिष्टविषयाः। तेषु प्रणिधानं-रागद्वेषनिधानं क्रोधादिषु च परिणाममेतत् । चारित्रविनयं-व्रतान्येवात्र चारित्रम् ॥१७॥ ३ अर्थदंयुगीनधुर्यस्य श्रामण्यप्रतिपत्तिनियमानुवादपुरस्सरं भावस्तवमाह सर्वावध निवृत्तिरूपमुपगुदाय सामायिकं, ____यश्छेदैविधिवद् व्रतादिभिरुपस्थाप्याऽन्यदन्वेत्यपि । वृत्तं बाह्य उतान्तरे कथमपि छेदेऽप्युपस्थापय त्यतिह्यानुगुणं धुरीणमिह नौम्यदंयुगीनेषु तम् ॥१७६॥ सविद्यनिवृत्तिरूपं-सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानलक्षणम्। उपगुरु-दीक्षकाचार्यसमीपे । आदाय९ सर्वसावधयोगप्रत्याख्यानलक्षणमेकं महाव्रतमधिरूढोऽस्मीति प्रतिपद्य । सामायिकं-समये एकत्वगमने भवम् । तदुक्तम् 'क्रियते यदभेदेन व्रतानामधिरोपणम् । कषायस्थूलतालीढः स सामायिकसंयमः ॥ [सं. पं. सं. २३९ ] विशेषार्थ-यहाँ चारित्रसे व्रत लिये गये हैं। व्रतोंको निर्मल करनेका जो प्रयत्न किया जाता है वही चारित्रकी विनय है। उसीके लिए समिति और गुप्तिका पालन करते हुए इन्द्रियोंके इष्टविषयोंमें राग और अनिष्टविषयोंमें द्वेष नहीं करना चाहिए। तथा क्रोध, मान आदि कषाय और हास्य आदि नोकषायका कदाचित् उदय हो तो क्रोधादि नहीं करना चाहिए। यही चारित्रकी विनय है । इसीसे व्रत निर्मल होते हैं ।।१७।। आगे मुनिपद धारणके नियमोंका कथन करते हुए इस युगके साधुओंमें अग्रणी साधुका भावपूर्वक स्तवन करते हैं जो विधिपूर्वक दीक्षाचार्य के समीपमें सर्वसावद्ययोगके त्यागरूप सामायिक संयमको स्वीकार करके और निर्विकल्प सामायिक संयमके भेदरूप पाँच महाव्रत और उनके परिकररूप स मूलगणाम याद आत्मा प्रमादा हाता है तो सामायिक सयमसे उतरकर छंदोपस्थापन संयमको भी धारण करता है । कदाचित् पुनः सामायिक संयमको धारण करता है और अज्ञान या प्रमादसे बाह्य अर्थात् द्रव्यहिंसारूप तथा अन्तर अर्थात् भाव हिंसारूप छेदके होनेपर आगमके अनुसार छेदोपस्थापना धारण करता है। इस भरत क्षेत्रमें इस युगके साधुओंमें अग्रणी उस साधुको मैं नमस्कार करता हूँ-उसका स्तवन करता हूँ ॥१७६।। विशेषार्थ-जो साधु होना चाहता है वह सबसे पहले अपने गुरुजनों, पत्नी, पुत्र आदिसे पूछकर उनकी स्वीकृति लेता है। उनके द्वारा मुक्त किये जानेपर कुल, रूप और वयसे विशिष्ट गुणवान आचार्यके पादमूलमें नमस्कार करके उनसे अपनानेकी प्रार्थना करता है। यों सच्चे गुरु तो अर्हन्त देव ही हैं किन्तु दीक्षाकालमें निग्रन्थ लिंगकी विधिको बतलाकर वे ही साधुपद स्वीकार कराते हैं इसलिए उन्हें व्यवहारमें दीक्षा-दाता कहा जाता है। पश्चात् सर्वसावद्ययोगके प्रत्याख्यानरूप एक महाव्रतको श्रवण करके आत्माको जानता हुआ सामायिक संयममें आरूढ़ होता है । सामायिक संयमका स्वरूप इस प्रकार है-बादर संज्वलन कषायके साथ जो व्रतोंको अभेदरूपसे धारण किया जाता है उसे सामायिक संयम कहते हैं। १. णमनमित्यर्थः-भ. कु. च.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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