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________________ ३ ६ ९ १२ धर्मामृत (अनगार ) अथ गुणानां लक्षणं सविशेषमाचक्षाणः सेव्यत्वमाह - गुणाः संयमवकल्पाः शुद्धयः कायसंयमाः । सेव्या हिंसाकम्पितातिक्रमाद्यब्रह्मवर्जनाः ॥१७३॥ शुद्धयः- प्रायश्चित्तानि ख्यानि दश । कायसंयमाः पूर्वोक्ताः पृथिवीकायिकादि संयमभेदा दश । ते चान्योऽन्यगुणिताः शतम् । हिंसेत्यादि ३६२ 'आलोचन प्रतिक्रमण - तदुभय- विवेक-व्युत्सर्ग-तप-छेद-मूल- परिहार श्रद्धाना 'हिंसानृतं तथा स्तेयं मैथुनं च परिग्रहः । क्रोधादयो जुगुप्सा च भयमप्यरतीरतिः ॥ मनोवाक्कादुष्टत्वं मिथ्यात्वं सप्रमादकम् । पिशुनत्वं तथा ज्ञानमक्षाणां चाप्यनिग्रहः ॥' [ तेषां वर्जनास्त्यजनान्येकविंशतिः । Jain Education International ] 'आकम्पिय अणुमणिय जं दिट्ठ बादरं च सुहुमं च । छष्णं सद्दाउलियं बहुजणमव्वत्ततस्सेवी ॥' [ भ. आरा. ५६२ । मूला. १०३० । ] गुणों का लक्षण और भेद कहते हुए उनकी उपादेयता बतलाते हैं संयम भेद शुद्धियाँ, कायसंयम, हिंसादि त्याग, आकम्पितादि त्याग, अतिक्रमादि त्याग और अब्रह्म त्यागरूप गुणोंका भी साधुको बारम्बार अभ्यास करना चाहिए || १७३॥ विशेषार्थ-संयमके ही उत्तर भेदोंको गुण कहते हैं । उनकी संख्या चौरासी लाख है। जो इस प्रकार है - आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, परिहार और श्रद्धान इन दस प्रकार के प्रायश्चित्तोंको शुद्धियाँ कहते हैं । पूर्वोक्त पृथिवीकायिक आदि संयम के दस भेद कायसंयम हैं । दस शुद्धियों और दस कायसंयमोंको परस्पर में गुणा करने से सौ भेद होते हैं । हिंसा आदि इस प्रकार हैं- हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, भय, अरति, रति, मनकी दुष्टता, वचनकी दुष्टता, काय की दुष्टता, मिथ्यात्व, प्रमाद, पिशुनता, अज्ञान और इन्द्रियोंका अनिग्रह, इनके त्याग इक्कीस भेद होते हैं । आकम्पित आदि दस इस प्रकार हैं- गुरुके हृदयमें अपने प्रति दयाभाव उत्पन्न करके आलोचना करना आकम्पित दोष है । गुरुके अभिप्रायको किसी उपायसे जानकर आलोचना करना अनुमानित दोष है । जो दोष दूसरोंने देख लिया उसकी आलोचना करना द्रष्टृ दोष है । स्थूल दोषकी आलोचना करना बादर दोष है । सूक्ष्म दोषकी आलोचना करना सूक्ष्म दोष है । प्रच्छन्न आलोचना करना कि आचार्यका कथन स्वयं ही सुन सके छन्न दोष है । बहुत शब्दोंसे व्याप्त समय में जब हल्ला हो रहा हो आलोचना करना शब्दाकुलित दोष है । एक आचार्य के सामने अपने दोषको निवेदन करके और उनके द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्तको स्वीकार करके भी उसपर श्रद्धा न करके अन्य आचार्यसे दोषका निवेदन करना बहुजन प्रायश्चित्त है । अव्यक्त अर्थात् प्रायश्चित्त आदि में अकुशल यतिके सामने दोषों की आलोचना करना अव्यक्त दोष है । जो दोष आलोचना के योग्य हैं उन्हीं दोषोंके सेवी गुरुके सामने आलोचना करना तत्सेवी दोष है । इन दस दोषोंके त्यागसे दस भेद होते हैं । विषयों में आसक्ति आदिसे अथवा संक्लेश भावसे आगम में कहे गये कालसे अधिक कालमें आवश्यक आदि करना अतिक्रम है । विषयोंमें आसक्ति आदिसे हीन काल में क्रिया For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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